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वैवाहिक विवादों का निपटारा शीघ्रता से और समझौतों के माध्यम से किया जाना चाहिए

ह भारत का दुर्भाग्य है कि सरकार जनता को न्याय प्रदान करने के काम को अपने काम का हिस्सा नहीं मानती। वह समझती है कि यह जिम्मा देश की स्वतंत्र न्यायपालिका का है। यह एक हद तक सही भी है। लेकिन उस के लिए पर्याप्त मात्रा में न्यायालयों की स्थापना की जिम्मेदारी सरकारों की है। लेकिन सरकारों ने अब तक देश के लिए आवश्यक संख्या की 20 प्रतिशत से कम अदालतें ही मुहैया कराई हैं। यही वह प्रमुख कारण है कि दुनिया में न्याय के लिए प्रतिष्ठा प्राप्त भारत की अदालतें समय पर न्याय नहीं कर पाती हैं, मुकदमे अनियतकालीन अवधि तक चलते रहते हैं और हम उस मुहावरे पर ध्यान दें कि देरी से किया गया न्याय न्याय नहीं है तो हम पाएंगे कि भारत में न्याय नाम की वस्तु नहीं पायी जाती है।
ही देरी जब वैवाहिक विवादों के मामले में होती है तो  न केवल दो जीवन खराब होते हैं  अपितु दो परिवारों को भी बरबाद करते हैं। इस के लिए न्यायलयों की कमी तो मुख्य कारण है ही वहीं न्यायालयों का इस तरह के मामलों में बेहद तकनीकी होना भी एक कारण है। यदि वैवाहिक विवादों में न्यायालय दोनों पक्षों के अभिवचनों के उपरांत दोनों पक्षों से बातचीत के माध्यम से पता लगाएँ कि दम्पति का साथ रहना मुमकिन है या नहीं। यदि जरा भी इस बात की संभावना हो कि दंपति साथ रह सकते हैं तो उन में समझौता कराने के प्रयत्न किए जाने चाहिए और इस तरह के मामलों में निर्णय पारित करने के स्थान पर समझौता कर उन का घर बसाने की ओर आगे बढना चाहिए। 
किन्तु यदि लगता है कि दोनों पक्ष साथ नहीं रह सकते तो दोनों पक्षों के बीच तलाक के लिए समझौता कराए जाने के रास्ते तलाशने चाहिए जिस से दोनों पक्ष वैवाहिक संबंधों को विच्छेद कर अपने नए जीवन का आरंभ कर सकें। इस संबंध में दिल्ली के मध्यस्थता केंद्र द्वारा की गई पहल को स्वागत योग्य कहा जाना चाहिए।
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