व्यवस्था के प्रति विद्रोह को संगठित करने का औजार
|“अर्थशास्त्र” में अभिव्यक्त की गई विष्णुगुप्त चाणक्य की यह सीख कि राजा को न्याय करना चाहिए, जिस से उस के विरुद्ध विद्रोह नहीं हो। भारत के सामंती युग के साम्राज्यवाद में परिवर्तन की दहलीज का विचार थी। तब से आज तक भरत खण्ड की इस भूमि ने अनेक परिवर्तन देखे हैं। समाज ने सामंती साम्राज्य के युग को ब्रिटिश साम्राज्य तक भोगा है। एक लम्बी लड़ाई के बाद आजादी और जनतन्त्र हासिल किया। वह शिशु जनतन्त्र आज किशोरावस्था में है और यौवन की दहलीज पर खड़ा है। आज चाणक्य का वह वाक्य बहुत पीछे छूट गया है। आज का राजा सामन्ती नहीं हो सकता। वह हर पाँच साल बाद चुना जाता है। उसे जनाकांक्षाओं के अनुसार ढ़लना होता है, और उन्हें पूरा करना होता है। वास्तविक न्याय की स्थापना उस का दायित्व हो गया है। यदि न्याय नहीं हुआ, उस में कोताही की गई, पक्षपात किया गया अथवा किसी के साथ अन्याय हुआ, तो धीरे-धीरे यह जनता पर अपना असर छोड़ता है जिस का प्रभाव अन्तिम रूप से राजा की दायित्वहीनता और मौजूदा व्यवस्था की बड़ी कमजोरी को ही स्थापित करता है। इस कारण मौजूदा व्यवस्था में यह जरूरी हो गया है कि शासन के आकांक्षी सभी राजनैतिक दल और उन के नेता जब जब भी सत्ता में आएं हमारी राज्य व्यवस्था के न्याय करने वाले अंग को स्वस्थ और चुस्त दुरूस्त बनाए रखें।
यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी न्याय प्रणाली का विकास समाज विकास के साथ कदम मिला कर आगे नहीं बढ़ पायी। उसे शासन करने वाले राजनेताओं ने एक ही स्थान पर कदमताल करते छोड़ दिया। धीरे-धीरे न्याय प्रणाली का दम फूलने लगा और अब वह कराहने लगी है। विगत दिसम्बर से हमारी न्याय प्रणाली के मुखिया ने जिस तरह अदालतों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता और उस के न होने से आ रहे परिणामों की ओर सरकारों तथा जनता का ध्यान खींचना शुरू किया है, उस का परिणाम ही था कि प्रधानमंत्री को हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करने के पहले हाईकोर्टों में जजों की संख्या में वृद्धि का निर्णय कर के आना पड़ा, जिस से उसे एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में जनता के सामने रखा जा सके यह भी घोषणा करनी पड़ी कि सुप्रीम कोर्ट में भी जजों की संख्यावृद्धि का निर्णय विचाराधीन है। उन्हों ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी खबर ली कि वे अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। उन्हों ने अदालतों में मुकदमों की संख्या को कम करने के लिए वैकल्पिक उपाय करने पर बहुत जोर दिया।
प्रधानमंत्री के इस भाषण में न्याय की गुणवत्ता को बढ़ाने या बचाए रखने पर भी जोर दिया। किन्तु उन की मुख्य चिन्ता यही रही कि किसी तरह मुकदमों की संख्या कम हो। उन की चिन्ता यह नहीं थी कि मुकदमों में न्याय हो और वह जनता के बीच परिलक्षित भी हो, अर्थात जनता भी यह महसूस करे कि उस के साथ न्याय हो रहा है।
वैकल्पिक उपायों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहले तो वे उपाय जिन से मुकदमा अदालत में आने के पहले ही विवाद समाप्त हो जाए, और दूसरा यह कि अदालत के सामने आ जाने के बाद भी पक्षकारों के बीच समझौता हो जाए। ये दोनों ही उपाय ऐसे हैं जिन से आने वाले मुकदमों और अदालत मे आने वाले मुकदमों की संख्या थोड़ी बहुत मात्रा में कम की जा सकती है। पहली श्रेणी के उपायों में ऐसे फोरम स्थापित किए जा रहे हैं जो लोगों की शिकायत पर समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं। दोनों पक्षकारों के मध्य यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि उन्हें मुकदमा लड़ने में कोई लाभ नहीं होगा, इस से अच्छा तो यह है कि वे किसी भी प्रकार के समझौते पर पहुँच जाएँ। इन मामलों में एक पक्ष आततायी होता है, उसे समझौते से कोई लेना देना नहीं होता। दूसरा पक्ष जो वास्तव में न्याय चाह
ता है। समझौता तभी सम्पन्न हो पाता है जब न्याय मांगने वाले पक्ष अपने सारे या कुछ महत्वपूर्ण अधिकारों का त्याग करना स्वीकार कर लेता है। दूसरी श्रेणी के उपायों में अदालतों को ही कहा जाता है कि वे मुकदमें के पक्षकारों के मध्य समझौतों के माध्यम से मुकदमें का समापन कराएँ। इस के लिए बड़े स्तर से छोटे स्तर तक लोक अदालत अभियान चलाए जा रहे हैं। इन अभियानों में मुकदमों की लम्बी प्रक्रिया का भय दिखाते हुए पक्षकारों को समझौते करने को प्रेरित किया जाता है। जिस में भी अंततः जिस पक्षकार को न्याय की वास्तविक आवश्यकता होती है उस के द्वारा अपने वाजिब अधिकारों के बड़े हिस्से की बलि चढ़ाने को तैयार होने पर ही समझौता सम्पन्न हो पाता है।
अंत में ये उपाय समाज में यह अहसास उत्पन्न करने में असमर्थ ही रहते हैं कि न्याय की स्थापना हुई है। इस के स्थान पर यह अहसास करा देते हैं कि हमारी व्यवस्था न्याय की स्थापना करने में अक्षम है और इसी कारण अस्थाई हल देने के प्रयासों में जुटी है। इस से न्याय व्यवस्था की साख गिरती ही है। कुल मिला कर ये वैकल्पिक उपाय व्यवस्था के प्रति जनता के विश्वास को कम करते हैं, और जनअसन्तोष में वृद्धि ही करते हैं। यह असंतोष ही व्यवस्था के प्रति विद्रोह को संगठित करने का एक औजार बनता है।
इस मामले में आप क्या सोचते हैं?
aapki baat se sahmat hoon…achcha lekh hai aapka.
सरकार मुकदमों की बढ़ती संख्या के कारण फौरी तौर पर समस्या के समाधान ढ़ूंढ़ने में लगी है.
जबकि इस मामले में विकट इच्छाशक्ति की जरूरत है तभी कुछ ठोस परिणाम निकलेंगे.
राष्ट़ीय विधिक सेवा प्राधिकरण जैसी संस्थाएं बनाकर केवल न्याय का दिखावा किया जाता है.
वाह-वाह सुन्दर ब्लॉग
दिनेश जी तो कया अब सच मे चाणक्य के कहे अनुसार हो रहा हे ? अगर नही तो कयो नही, कही राजा को न्याय से ही तो डर नही लग रहा ?
राज्य के प्रति विद्रोह ही नहीं, समाज की सड़न को रोकने के लिये भी बहुत जरूरी है न्याय व्यवस्था का पुख्ता और रिस्पॉन्सिव होना।
और यह करना ही होगा। न्याय, शिक्षा और इन्प्रास्टक्चर पर बजट मद बढ़ानी होंगी और उसके रिटर्न्स भी मिलेंगे।
बाकी, न्याय की गुणवत्ता भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इस मुद्दे पर जन जागरण इस लिये ठप हो जाता है कि जनता न्याय की गुणवत्ता के प्रति आश्वस्त नहीं है – विशेषत: निचली अदालतों में।
आपका लेख पढ़ने के बाद सोच रहा हूँ, वास्तव में राजा-प्रणाली में भी प्रजा की देख रेख अनिवार्य ही थी – चुनाव नहीं तो विद्रोह तो हो ही सकता था, और वह भी जानलेवा। चाणक्य ने विद्वान मन्त्रियों की सलाह लेने पर भी काफ़ी ज़ोर दिया था।