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सरकारें जनता को न्याय दिलाने के काम को कितना जरूरी समझती हैं?

देश में कानून और व्यवस्था बनाए रखना,  देश के कानून के अनुरूप अपराध करने वालों को सजा देना और गैरफौजदारी कानूनों की पालना को सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है।  जो राज्य इन कर्तव्यों की पूर्ति नहीं कर सकता वह अराजकता के अंधकार में चला जाता है। क्या हम अपने गणराज्य भारत को इस कसौटी पर रख कर देख सकते हैं?


एक न्यायपूर्ण प्रणाली के लिए न्याय का द्रुत गति से संपन्न होना आवश्यक है, लेकिन हम इस देश में देखते हैं कि लोग फाँसी की सजा पाए बैठे हैं और उस का निष्पादन करने में सालों-साल गुजर जाते हैं, यहाँ तक कि उस मामले में सर्वोच्च अदालत को राज्य के काम में हस्तक्षेप करना पड़ता है। सरकार देश की सब से बड़ी न्यायार्थी है। देश की अदालतों में लंबित फौजदारी मुकदमों में 138 परक्राम्य अधिनियम के चैक बाउंस के मुकदमों को हटा दें तो शेष फौजदारी मुकदमों में से 95% से अधिक में सरकार अभियोजक है।  जिस तरह से वह व्यवहार करती है लगता है वह अपराधियों को सजा दिलाना ही नहीं चाहती और उन्हें अपराध करने की खुली छूट देना चाहती है।  जब अभियोजन तो होंगे और अदालतें उन का निर्णय करने में सीमाहीन अत्यधिक समय लेगी तो उस का क्या अर्थ है? अपराधी समझने लगे हैं कि अधिक से अधिक क्या होगा? यही न कि एक मुकदमा लाद दिया जाएगा। कुछ दिनों में जमानत हो जाएगी। फिर कानून के इतने पेच हैं कि जीवन भर मुकदमे को उन में उलझाए रखा जा सकता है। सरकार पर्याप्त अदालतें स्थापित करने में अक्षम रही है वर्तमान में देश में जरूरत की चौथाई से भी कम अदालतें हैं।

अपराधों के आंकड़े बढ़ न जाएँ इस के लिए पुलिस प्राथमिक स्तर पर प्रयत्नशील रहती है। वह प्रथमसूचना रिपोर्ट दर्ज करने के स्थान पर फरियादी को हतोत्साहित करने की भूमिका अदा करती है और अपराधियों को इकट्ठा कर उन से समझौता कराने में मशगूल रहती है। अपराध जो कि राज्य या समाज के विरुद्ध किए गए हैं वे समझौते के योग्य नहीं होते। इस मामले में हमारा कानून विशेष रूप से उदार है। उस से भी उदार हमारी पुलिस है जो समझौते के योग्य न होते हुए भी अपराध के दर्ज होने के पहले ही उन में समझौते करा देती है।  एक व्यक्ति को प्रभावित कर अपराध का थाने में शमन कर दिया जाता है। अपराधियों के हौंसले बढ़ जाते हैं। समाज, देश और राज्य जाए भाड़ में। उन की किस को पड़ी है। अभियोजन की प्रक्रिया में फरियादियों और गवाहों को जिस प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है उस से कोई भी व्यक्ति गवाही देना पसंद नहीं करता। न्यायालय बिना किसी सबूत के किसे सजा दें?


दीवानी मामलात का तो कहना ही क्या? उनके लिए अदालतों के पास समय ही नहीं है। एक बार कोई मुकदमा दायर कर दें उस के बाद यदि न्यायार्थी के जीवन में निर्णय हो जाए तो वह उस के लिए बहुत बड़ा सौभाग्य है।  दीवानी मामलों की स्थिति यह हो गई है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कहने लगे हैं कि अब केवल फौजदारी मुकदमे होंगे। क्यों कि दीवानी मामलात न्याय में देरी के कारण गुंडे निपटाने लगे हैं।  राज्य की न्याय करने की शक्ति उस ने स्वयं ही अपराधि

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