सरकारें जनता को न्याय दिलाने के काम को कितना जरूरी समझती हैं?
|देश में कानून और व्यवस्था बनाए रखना, देश के कानून के अनुरूप अपराध करने वालों को सजा देना और गैरफौजदारी कानूनों की पालना को सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है। जो राज्य इन कर्तव्यों की पूर्ति नहीं कर सकता वह अराजकता के अंधकार में चला जाता है। क्या हम अपने गणराज्य भारत को इस कसौटी पर रख कर देख सकते हैं?
अपराधों के आंकड़े बढ़ न जाएँ इस के लिए पुलिस प्राथमिक स्तर पर प्रयत्नशील रहती है। वह प्रथमसूचना रिपोर्ट दर्ज करने के स्थान पर फरियादी को हतोत्साहित करने की भूमिका अदा करती है और अपराधियों को इकट्ठा कर उन से समझौता कराने में मशगूल रहती है। अपराध जो कि राज्य या समाज के विरुद्ध किए गए हैं वे समझौते के योग्य नहीं होते। इस मामले में हमारा कानून विशेष रूप से उदार है। उस से भी उदार हमारी पुलिस है जो समझौते के योग्य न होते हुए भी अपराध के दर्ज होने के पहले ही उन में समझौते करा देती है। एक व्यक्ति को प्रभावित कर अपराध का थाने में शमन कर दिया जाता है। अपराधियों के हौंसले बढ़ जाते हैं। समाज, देश और राज्य जाए भाड़ में। उन की किस को पड़ी है। अभियोजन की प्रक्रिया में फरियादियों और गवाहों को जिस प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है उस से कोई भी व्यक्ति गवाही देना पसंद नहीं करता। न्यायालय बिना किसी सबूत के किसे सजा दें?
दीवानी मामलात का तो कहना ही क्या? उनके लिए अदालतों के पास समय ही नहीं है। एक बार कोई मुकदमा दायर कर दें उस के बाद यदि न्यायार्थी के जीवन में निर्णय हो जाए तो वह उस के लिए बहुत बड़ा सौभाग्य है। दीवानी मामलों की स्थिति यह हो गई है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कहने लगे हैं कि अब केवल फौजदारी मुकदमे होंगे। क्यों कि दीवानी मामलात न्याय में देरी के कारण गुंडे निपटाने लगे हैं। राज्य की न्याय करने की शक्ति उस ने स्वयं ही अपराधि
Your answer was just what I neddee. It’s made my day!
चलने=चलते
इसी के चलने या तो लोग खुद 'न्याय' कर लेते हैं या पुलिस न्याय [ :-)] कर देती है.
बहुत अफ़्सोसजनक बात है.
रामराम.
deद्श की किसी भी समस्या पर बात करते ही मन खिन्न हो जाता है क्या होगा देश का ? शुभकामनायें
कानून का पालन सुनिश्चित हो, शायद यही है इलाज़।
बी एस पाबला
हम लोग एक नारा लगाया करते हैं " हड़ताल हमारा शौक नहीं ,मजबूरी है मजबूरी " लेकिन इस मजबूरी का फायदा कब तक उठाया जायेगा ?
सारकार अपने खुद के गुणा भाग से उबरे तो कुछ सोचे..
यह कमी तो हमारी सरकार की इच्छा शक्ति के कारण है, वेसे एक मुक्कदमे के फ़ेसले की सीमा होनी चाहिये,ओर दो चार या पांच तारीखो मे फ़ेंसला हो जाना चाहिये, ओर हर तरह के मुकदमे एक ही जगह नही होने चाहिये,क्या हमारी न्याय व्यवस्था अभी भी बचपने मै है,तो पता नही कब बडी होगी? ओर आवादी के अनुसार अदलते भी तो बढनी चाहिये,
वेसे एक कहावत बन गई है कि जिस से बदला लेना हो उसे आदालत मै फ़ंसा दो..
आप का लेख पढ कर बहुत सी जानकारी मिली.
धन्यवाद
द्विवेदी सर, अगर सरकारें गंभीर होतीं तो इस देश में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अदालतों में लंबित होते…क्या ये देरी न्याय की मूल भावना से ही खिलवाड़ नहीं करती…
जय हिंद…