सरकारों की कुम्भकर्णी निद्रा तोड़ने के लिए शीघ् न्याय को राजनैतिक मुद्दा बनाना होगा
|पिछले आलेख मुख्य न्यायाधीश ने कहा-अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में पाँच गुना वृद्धि आवश्यक में तिरुनेलवेल्ली में हुए एक कार्यक्रम में जो कुछ कहा गया था उस की रिपोर्टिंग थी, जिस में मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि आबादी के हिसाब से अदालतों की स्थापना नहीं हुई और अदालतें पाँच गुना होना चाहिए। इस पर कुछ पाठकों की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ इस प्रकार थीं…
- इस पर तुरंत अमल करनें की जरूरत है ,वरना बहुत देर हो जायेगा।
- कार्यप्रणाली की गुणवत्ता सुधार जरूरी है।
- केवल न्यायपालिका का आकर बढ़ाना ही एकमात्र उपाय नहीं है. न्यायप्रणाली में भी आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
न्यायिक सुधारों को लागू करने के समय की बात है तो पहले ही बहुत देर हो चुकी है और समूचा ढांचा ही चरमरा रहा है, बस गिरने भर की देर है। और देऱी होने के बाद उस में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी। कार्यप्रणाली में गुणवत्ता बहुत गिरी है। उस का कारण भी अदालतों पर पाँच गुना भार ही है। मुकदमों के निपटारे में अनेक बार तो जजों को ध्यान देने तक का अवकाश नहीं होता। एक बार में एक ही काम के स्थान पर उन्हें अनेक काम करने पड़ रहे हैं। वे एक साथ बहस भी सुनते हैं, गवाहों की गवाहियां भी रिकॉर्ड करते हैं। बहस सुनने के उपरांत उन्हें निर्णय भी करने पड़ते हैं। उस के लिए उन्हें पढ़ने का पर्याप्त समय नहीं है। अदालतें अपनी क्षमता से कम से कम दुगनी गति से काम कर रही हैं। इस सब का असर भी गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
जहाँ तक आधुनिक पद्यतियों के उपयोग का प्रश्न है, जितने साधन उन्हें मुहैया कराए गए हैं उन का उपयोग हो रहा है। सरकार अदालतों को साधन उपलब्ध कराने में बहुत कृपण है। राज्य के श्रम मंत्रालय के अधीन चल रहे श्रम विभाग के कोटा कार्यालय में कम्प्यूटर है, फैक्स सुविधा है। उन का उपयोग राजकीय कार्यों के अतिरिक्त वैयक्तिक कार्यों में भी कम नहीं होता। लेकिन उसी मंत्रालय के अंतर्गत चल रहे श्रम न्यायालय में एक दो टाइप की मशीनें हैं जो 1979 में खरीदी गई थीं। दोनों बहुत जर्जर हालत में हैं। मिस्त्री कह चुके हैं कि अब इन्हें दुरुस्त करना असंभव होता जा रहा है। न्यायालय करीब दस वर्षों से कम्प्यूटर की मांग करता चला आ रहा है, जिस से निर्णय लिखाने में सुविधा हो। लेकिन यह मांग बजट के अभाव का कारण बता कर हर बार पूरी नहीं की जाती है। अदालत जैसे तैसे उन्हीं टाइप मशीनों से काम चला रही है। यह तब है जब राजस्थान के सब श्रम न्यायालयों से अधिक काम कोटा के न्यायालय में है जहाँ चार हजार से अधिक मुकदमे लम्बित हैं। अन्य न्यायालय जो इस के बाद स्थापित हुए हैं वहाँ स्थापना के बजट से कंप्यूटर स्थापित किए गए अनेक वर्ष हो गए हैं। लेकिन सब से अधिक बोझ से दबी इस अदालत की आवाज राज्य सरकार को सुनाई नहीं दे रही है। इस तरह सब स्थानों पर न्यायपालिका कुपोषण की शिकार है, जिस के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं।
आमूल चूल परिवर्तन की भी तभी संभव है जब कि प्रक्रिया संबंधी बहुत से कानूनों और नियमों को बदला जाए। इन दोनों कामों को भी संसद, विधायिका और सरकारों को करना है। 
; इस मामले पर भी मुख्य न्यायाधीश अनेक बार बोल चुके हैं। इस बार तो उन्हें परोक्ष रूप से यह भी कहना पड़ा कि राज्य सरकारों को उन की जिम्मेदारी निभाने के लिए बाध्य करने के लिए जनता को उन पर राजनैतिक दबाव बनाना पड़ेगा। इसलिए जब तक शीघ्र न्याय एक राजनैतिक मुद्दा नहीं बनता, तब तक शायद राज्य सरकारों की कुम्भकर्णी निद्रा नहीं टूटेगी।
छाया-सुनील दीपक
I’d be inclined to acknowledge with you one this subject. Which is not something I usually do! I enjoy reading a post that will make people think. Also, thanks for allowing me to comment!
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जहा चारूर सब कुछ ओन लाईन होने जा रहा हो वहा अदालतो मे परीवर्तन की बयार आने की सम्भावना दूर दूर तक नजर नही आ रही है
निश्चित ही पहल की दरकार है.
आपके विचारों से पूर्णतया सहमत ,तुरंत पहल करनी होगी वरना बहुत देर हो जायेगी .
ऎसी बाते हम बचपन से सुनते आये है, लेकिन अब आदत पड गई है, ओर जानते है होगा कुछ नही.
धन्यवाद इस सुंदर सी जानकारी के लिये