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सेवा बंध-पत्र की सीमाएँ तय हों

युवनीत सूरी को कंपनी ने 07.12.2003 के पत्र से रेस्टोरेंट जनरल मैनेजर के पद पर नियुक्त किया था। नियुक्ति पत्र की शर्त के अनुसार उसे दिसम्बर 2003 से मार्च 2004 तक रेस्टोरेंट ऑपरेशन की ट्रेनिंग के लिए अमरीका जाना था, जिस का समूचा खर्च कंपनी को भुगतना था। युवनीत को सफलता पूर्वक ट्रेनिंग समाप्त होने की तिथि 19.05.2007 से 18.05.2007 तक तीन वर्ष कंपनी में नौकरी करनी थी, जिस की गारंटी के लिए उस ने 15.12.2003 को एक लिखित अनुबंध किया था, इस अनुबंध को लागू करने की गारंटी राजेश क्वात्रा ने दी थी। अनुबंध में तीन वर्ष तक नौकरी न करने पर क्षतियों के रुप में युवनीत सूरी को 3.5 लाख रुपए कंपनी को अदा करने की शर्त थी। युवनीत ने दिनांक 15.02.2006 को नौकरी छोड़ दी और कंपनी के अनुसार उसने इस की सूचना भी कंपनी को नहीं दी।

इस मामले में 12.11.2003 का कंपनी का एक पत्र प्रस्तुत हुआ जिस में युवनीत को नौकरी के लिये चयन कर लिए जाने और 25,000.00 रुपए जमा करने की की सूचना दी गई थी। जमा की गई यह राशि तीन वर्ष की सेवा पूरी कर लेने पर युवनीत को वापस प्राप्त होनी थी। इसी पत्र में यह भी लिखा था कि यदि कंपनी उसे ट्रेनिंग के लिए अमरीका भेजना तय करती है तो उसे तीन वर्ष तक कंपनी की नौकरी करने की अंडरटेकिंग लिख कर देनी पड़ेगी। दूसरा प्रलेख नियुक्ति पत्र था, जिसमें सेवा बंध-पत्र का कोई उल्लेख नहीं था। 05.12.2003 व 08.12.2003 के दो प्रलेख अमरीकन दूतावास को वीजा दिए जाने हेतु लिखे गए थे, जिस से पता लगता था कि युवनीत सूरी को नियुक्त किये जाने के पहले ही वीजा के लिए कार्रवाई प्रारंभ कर दी गई थी। अंतिम प्रलेख दिनांक 15.12.2003 का अनुबंध था जिस में पहली बार यह कहा गया था कि निश्चित समय तक नौकरी न करने पर उसे 3.5 लाख रुपए क्षतिपूर्ति के रूप में कंपनी को अदा करने होंगे।

युवनीत व उस के गारंटर ने बचाव के लिए तर्क था कि उस ने नियुक्ति पत्र मिलने पर पिछली नौकरी छोड़ी और 25 हज़ार रुपए कंपनी में जमा कराए। इस के बाद उस से सेवा बंध-पत्र निष्पादित कराने के लिए कंपनी ने ‘अनुचित प्रभाव’ का प्रयोग किया है।

‘अनुचित प्रभाव’ के लिए दो तत्व आवश्यक थे, एक तो पक्षकारों के बीच ऐसा संबंध जिस से एक पक्षकार दूसरे की इच्छा पर हावी हो सके और दूसरा यह कि हावी हो सकने वाले पक्षकार ने इस संबंध का दूसरे से अनुचित लाभ उठाने के लिए प्रयोग किया हो।

न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए गए प्रलेखों के आधार पर दिल्ली उच्च-न्यायालय ने यह माना कि युवनीत से सेवा बंध-पत्र निष्पादित कराने के लिए अनुचित दबाव का प्रयोग किया हो सकता है, जिसे वह अदालत में सबूत पेश कर साबित कर सकता है। अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने युवनीत सूरी की बचाव करने की अनुमति देने का आवेदन निरस्त कर गलती की। उच्च-न्यायालय ने उसे बिना शर्त बचाव करने की अनुमति प्रदान कर दी। अब यह मामला साक्ष्य के आधार पर जिला न्यायालय द्वारा तय किया जाना है।

इस तरह हम देखते हैं कि सेवा बंध-पत्र कंट्रेक्ट कानून में वर्णित विभिन्न आधारों पर शून्यकरणीय या शून्य घोषित किया जा सकता है। प्रत्येक मामले में बंध-पत्र की शर्तों और उस के निष्पादन की परिस्थितियों के आधार पर ही यह तय किया जा सकता है कि उस बंध-पत्र की वैधानिक स्थिति क्या होगी। सामान्य रुप से यह नहीं कहा जा सकता कि सभी सेवा बंध-पत्र गैर कानूनी हैं। यदि ऐसा हो जाए तो फिर नियोजक बंध-पत्र निष्पादित कराने की कसरत क्यों करेंगे? और क्यों कराएँगे?

ज्ञानदत्त जी पाण्डे के इस प्रश्न का उत्तर कि “अदालतें इसमें नीर-क्षीर-विवेक करती हैं?” इसी उदाहरण से मिल गया होगा। अदालतों में कोई भी काम तब तक एक-तरफा नहीं होता जब तक कि कोई पक्षकार स्वयं ही अनुपस्थित न हो जाए। दोनों पक्ष अपनी-अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं और उन के वकील तर्क प्रस्तुत करते हैं। पूरी विवेचना के उपरांत ही न्यायालय निर्णय देते हैं। फिर कोई त्रुटि रह भी जाए तो अपील, पुनरीक्षण आदि के प्रावधान हैं। हाँ, दावे में किए गए कथनों, प्रलेख प्रस्तुत करने, साक्ष्य प्रस्तुत करने में कोई गलती हो जाए तो उसे तो पक्षकार को ही भुगतना पड़ेगा। अदालतों से जो बड़ी शिकायत है वह मामलों में शीघ्र निर्णय नहीं होने की है। उस का कारण तो “तीसरा खंबा” अनेक बार आप के सामने रख चुका है कि अदालतें जरूरत की 20% से भी कम हैं। उस का इलाज तो सरकारें ही कर सकती हैं। उस पर दबाव बनाने के लिए सशक्त जनांदोलन की जरूरत देश को है।

ज्ञानदत्त जी का आज का प्रश्न भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार के सभी काण्ट्रेक्ट एक तरफा होते हैं। लोन लेने वाले के पास चारा क्या है? इस प्रकार के करार का कोई स्टेण्डर्ड प्रकार होना चाहिये, सरकार के विधि विभाग से सम्मत। कुछ उसी प्रकार जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उपभोक्ता का हित देखने के लिये अथारिटी हैं”

वास्तविकता यह है कि जब किसी समझोते में दोनों पक्ष बराबर के न हों वहाँ मजबूत-पक्ष मजबूर-पक्ष का लाभ उठाता है। हमारे देश में बेरोजगारी जिस सीमा की है, उस से नियोजक हमेशा ही इस स्थिति में रहते हैं कि वे रोजगार के आकांक्षियों का अनुचित लाभ उठाते हैं। अब यह तो संभव नहीं दिखाई देता कि बेरोजगारी का प्रतिशत एक दम इतना कम किया जा सके कि रोजगार आकांक्षी अपनी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग कर सकें। इस लिए जब तक स्वतंत्र इच्छा के प्रयोग की आदर्श स्थिति प्राप्त नहीं हो जाती तब तक सरकार को चाहिए कि वह कानून बना कर सीमाएं तय करे। जैसे नियोजक एक वर्ष से अधिक नौकरी करने के लिए बाध्यकारी अनुबंध नहीं कर सके, क्षतिपूर्ति की राशि की अधिकतम सीमा भी निश्चित की जा सकती हैं।

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