हमारी सरकारें अभी भी भारत को अपना देश नहीं समझतीं
|कुछ दिन पूर्व एक समचार चैनल पर एक वरिष्ठ अधिवक्ता का साक्षात्कार प्रस्तुत किया जा रहा था। समस्या थी जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की। इन कैदियों को जेलों में रखने के लिए हर वर्ष केंद्र और राज्य सरकारों को बहुत धन खर्च करना पड़ता है। सूचनाओं के अनुसार भारत की जेलों में रह रहे कैदियों में से 70 प्रतिशत अपने मुकदमों के फैसले के इंतजार में हैं। अधिवक्ता महोदय का कहना था कि ऐसे कैदियों के लिए यह एक राहत का विषय है कि जिन कैदियों ने अपील की हुई है और निचली अदालत से जो सजा उन्हें दी गई है उस की आधी सजा काटने पर उन्हें रिहा किया जा रहा है। इस तरह की रिहायगी को मानवता की दृष्टि से जायज ठहराया जा सकता है। लेकिन उन का क्या जिन्हें सजा नहीं हुई है और केवल विचारण में दो से दस वर्ष तक लग रहे हैं? कभी-कभी तो उन्हें जितनी सजा मिलनी होती है उतनी ही वे पहले ही जेलों में काट चुके होते हैं। जो जमानत पर रिहा हो जाते हैं उन्हें अपने मामलों के निर्णयों के लिए बरसों अदालतों में चक्कर काटने पड़ते हैं, आने जाने में ही इतना खर्च करना पड़ता है कि विचारण उन के लिए अदालत द्वारा दी जाने वाली सजा से कम नहीं।
हम यह सोच सकते हैं कि कैसे विचाराधीन कैदियों को जेल से बाहर निकाला जाए। किन्हें जमानत पर छोड़ा जाए और किन्हें अंदर रखा जाए? मुकदमों के निपटारे के लिए समझौतों को प्रोत्साहन दिया जाए, लोक अदालतें लगाई जाएँ। हम सब कुछ कर सकते हैं, लेकिन ऐसी न्याय व्यवस्था देने की बात पर विचार नहीं कर सकते कि कैसे अदालतों में विचारण एक वर्ष में पूरा होने और अपील की एक माह में सुनवाई की स्थिति लाई जाए। यह स्थिति लाई जा सकती है लेकिन उस के लिए अदालतों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी,
हमारे यहाँ शासन ने जिस क्षेत्र में भी जो व्यवस्थाएं बना रखी है वे इतनी जटिल है या वहां काम करने वाले इतने कम है कि आम आदमी ले देकर अपना काम निकालने में ही अपनी समझदारी समझता है और इसी व्यवस्था के चलते देश में भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी हो गयी कि इन्हें अब निकालना बहुत मुश्किल कार्य हो चूका है|
कभी कभी लगता तो ऐसा ही है।
——
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है…।
कभी कभी लगता तो ऐसा ही है।
——
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है…।
गुरुवार जी, जिस दिन भारत देश की जनता को यह बात समझ में आ गई और अपने पूरे जोश के साथ मैदान में आ गई तब देखना हमारे भारत देश के स्वार्थी राजनेताओं को किसी देश में शरण भी नहीं मिलेगी.जनता इनको दौड़ा-दौडकर मारेगी.इन्हें अपनी सात पुश्तो या पीढ़ी की कहे चिंता रहती हैं. जनता की चिंता करने के लिए हम-तुम बुध्दिजीवी वर्ग जो है.जो चार लाइन लिखकर अपने मन की भड़ास निकल लेते हैं.हमारे जैसे भाई जब चुनाव में जनता के पास उनके फायदे की बात करते हैं तब उनको प्रति वोट एक हजार रूपये और दो शराब की बोतल अच्छी लगती हैं. फिर चिल्लाते हैं कि यह राजनीतिज्ञ कुछ नहीं करते हैं.पहले क्या उनके पास अपना विवेक नहीं था?
गुरुवर जी, मैंने आज आपकी उपरोक्त पोस्ट को अपने फेसबुक खाते के माध्यम से अन्य लोगों के साथ साझा करने की कोशिश की है.मेरा खाता सर्च करके देखें और बताये मेरा यह कैसा प्रयास है?
@ यह व्यवस्था स्वप्न हो गई है एक नई और गतिमान न्याय व्यवस्था के स्वप्न को साबित करने के लिए खुद जनता को ही मैदान में आना पड़ेगा। ..
यही सही है सर जी.