औद्योगिक श्रमिक सेवा समाप्ति के अलावा किसी भी अन्य मामलें में दीवानी अदालत में वाद ला सकता है
|औद्योगिक श्रमिकों और उन के नियोजक के बीच होने वाले विवादों को हल करने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम बनाया गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत न्यायपूर्ण हल के लिए श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों की स्थापना की गई है। यूँ तो इस अधिनियम में राष्ट्रीय अधिकरण की भी व्यवस्था है लेकिन अभी इस तरह का कोई अधिकरण है नहीं। इन न्यायालयों के होते हुए भी बहुत लोग हैं जो कि दीवानी अदालतों के समक्ष अपने विवादों को ले जाते रहे हैं और दीवानी अदालतें इन मुकदमों में राहत प्रदान करती रही हैं। 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रीमियर ऑटो मोबाइल के मुकदमे में स्पष्ट किया कि जब इन विशेष प्रकृति के मुकदमों की सुनवाई के लिए पृथक न्यायालय स्थापित हैं तो लोगों को इन्हीं अदालतों में जाना चाहिए न कि दीवानी अदालतों में। इस निर्णय में स्पष्ट किया गया कि किन मामलों में न्यायार्थियों को दीवानी या श्रम अदालतों में जाना चाहिए और कौन से वे मामले हैं जिन में वे दोनों में से किसी एक अदालत में न्याय हेतु जा सकते हैं।
इस निर्णय के उपरांत होने यह लगा कि लोग औद्योगिक न्यायाधिकरणों और श्रम न्यायालयों के स्थान पर दीवानी अदालतों में अपने मामले ले कर जाने लगे। विशेष रुप से उन उद्योगों के कर्मचारी जिन के नियोजक राज्य की श्रेणी में आते थे। इन में भी बहुतायात राज्य सरकारों द्वारा संचालित रोडवेज ट्रांसपोर्ट कारपोरेशनों के कर्मचारी सम्मिलित थे। इस तरह कर्मचारियों की सेवा समाप्ति के हजारों मुकदमे दीवानी अदालतों में आने लगे और निर्णीत होने लगे। लेकिन राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम एक मामले को उच्चतम न्यायालय तक ले गई। तब फिर से प्रसिद्ध राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम बनाम कृष्णकांत के मुकदमे का निर्णय आया। जिस में मुख्य रुप से यह कहा गया कि जिन मामलों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत न्यायार्थी को उपाय उपलब्ध है वह दीवानी न्यायालय में वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता। इस से यह हुआ कि कर्मचारियों के सेवा समाप्ति से संबंधित मामले दीवानी अदालत के क्षेत्राधिकार से बाहर हो गए। जो मुकदमे दीवानी अदालतों में लंबित थे उन्हें खारिज कर दिया गया। हजारों न्यायार्थियों को नए सिरे से अपने विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत उठाने पड़े जिन्हें श्रम न्यायालयों तक पहुँचने में दो से तीन साल तक लग गए। इस से दीवानी न्यायालयों का बोझा तो कम हुआ लेकिन श्रम न्यायालयों पर बोझा बढ़ गया। इस दौर में यह भी हुआ कि औद्योगिक कर्मचारियों से संबंधित सभी मुकदमों को दीवानी अदालतें खारिज करने लगीं और नयों को विचारार्थ स्वीकार करने से इन्कार करने लगीं। जब कि उन में से बहुत ऐसे थे जो केवल दीवानी अदालत में ही चल सकते थे।
वास्तव में औद्योगिक विवाद अधिनियम के अंतर्गत केवल उन्हीं विवादों को ले जाया जा सकता है जो इस अधिनियम में परिभाषित ‘औद्योगिक विवाद’ हों। इस परिभाषा में समस्या ये है कि इस में नियोजक और कर्मचारियों के मध्य विवाद को ही औद्योगिक विवाद माना जा सकता है। अर्थात कोई एक कर्मचारी स्वतंत्र रुप से अपना विवाद उठाना चाहे तो नहीं उठा सक
ता था। यहाँ तक कि उस की सेवा समाप्ति के मामले में भी। उसे विवाद उठाने के पहले किसी ट्रेड यूनियन से समर्थन हासिल करना होता या फिर उद्योग में नियोजित श्रमिकों की पर्याप्त संख्या का समर्थन हासिल होता। इस तरह कर्मचारी को न्याय प्राप्त करने की व्यक्तिगत स्वंतत्रता इस अधिनियम में नहीं दी गई थी। इस से समर्थन के अभाव में अपने मुकदमे को दीवानी न्यायालय ले जाने के अतिरिक्त कोई उपाय उपलब्ध नहीं था। फिर औद्योगिक विवाद अधिनियम में दिनांक 1.12.1965 को किए गए संशोधन से उस में धारा 2-ए जोड़ी गई जिस में सेवा समाप्ति से संबंधित सभी मामलों को बिना वांछित समर्थन के भी व्यक्तिगत रुप से उठाने पर भी औद्योगिक विवाद मान लिया गया। इस तरह इन मामलों में औद्योगिक श्रमिक श्रम न्यायालय में जाने लगे।
ता था। यहाँ तक कि उस की सेवा समाप्ति के मामले में भी। उसे विवाद उठाने के पहले किसी ट्रेड यूनियन से समर्थन हासिल करना होता या फिर उद्योग में नियोजित श्रमिकों की पर्याप्त संख्या का समर्थन हासिल होता। इस तरह कर्मचारी को न्याय प्राप्त करने की व्यक्तिगत स्वंतत्रता इस अधिनियम में नहीं दी गई थी। इस से समर्थन के अभाव में अपने मुकदमे को दीवानी न्यायालय ले जाने के अतिरिक्त कोई उपाय उपलब्ध नहीं था। फिर औद्योगिक विवाद अधिनियम में दिनांक 1.12.1965 को किए गए संशोधन से उस में धारा 2-ए जोड़ी गई जिस में सेवा समाप्ति से संबंधित सभी मामलों को बिना वांछित समर्थन के भी व्यक्तिगत रुप से उठाने पर भी औद्योगिक विवाद मान लिया गया। इस तरह इन मामलों में औद्योगिक श्रमिक श्रम न्यायालय में जाने लगे।
लेकिन अब भी एक दुविधा यह रह गई थी कि श्रमिकों के वेतन, स्थानान्तरण, सेवा समाप्ति के दंड से अलग दंडों के मामले श्रम न्यायालय तक पहुँचाने में समर्थन की आवश्यकता थी। यदि कोई कर्मचारी इस तरह का समर्थन हासिल न कर सके तो वह श्रम न्यायालय में नहीं जा सकता था। उधर कृष्णकांत वाले मुकदमे के निर्णय के उपरांत दीवानी न्यायालय भी श्रम न्यायालय का क्षेत्राधिकार बता कर इन मुकदमों को खारिज कर रहे थे। जब कि इन मामलों को दीवानी न्यायालयों को अब भी क्षेत्राधिकार प्राप्त था। ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालयों के निर्णय आए हैं जिन में कहा गया गया है कि सभी तरह की सेवा समाप्ति के मामलों के अतिरिक्त कर्मचारी का कोई भी व्यक्तिगत विवाद जिसे किसी ट्रेडयूनियन या उद्योग के पर्याप्त संख्या के श्रमिकों का समर्थन प्राप्त न हो वह दीवानी न्यायालय में ले जाया सकता है। इन निर्णयों में राजस्थान उच्च न्यायालय का निर्णय Jagdish Narain Sharma And Anr. vs Rajasthan Patrika Ltd. And Anr. तथा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय Sudhir Kumar Sharma vs Bundel Khand Kshetriya Gramin Bank प्रमुख है। इस तरह हम देखते हैं कि कोई भी औद्योगिक श्रमिक अपने नियोजक के विरुद्ध उस की सेवा समाप्ति से संबंधित मामले को छोड़ कर किसी भी अन्य मामलें में दीवानी अदालत में वाद प्रस्तुत कर सकता है।
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2 Comments
बहुत अच्छी अच्छी जानकारियां मिल रही है, धन्यवाद
आपके बहाने बहुत कुछ जानने का मिल रहा है, आभार।
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पॉल बाबा की जादुई शक्ति के राज़।
सावधान, आपकी प्रोफाइल आपके कमेंट्स खा रही है।