कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना : भारत में विधि का इतिहास-30
|रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 से इंग्लेंड के सम्राट को कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट स्थापित करने का अधिकार प्राप्त हुआ। सम्राट जॉर्ज द्वितीय ने 26 जुलाई 1774 को चार्टर जारी कर कोलकाता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की। यह एक अभिलेख न्यायालय था और मुकदमों का संपूर्ण अभिलेख रखा जाता था। यहाँ एक मुख्य तथा तीन अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई थी। सर एलिजा इम्पे को पहला मुख्य न्यायाधीश और चैम्बर्स, स्टीफन और जान हाइड को न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इन पदों पर नियुक्ति के लिए इंग्लेंड या आयरलेंड में बैरिस्टरी का पाँच वर्ष का अनुभव होना आवश्यक था। न्यायाधीश का कार्यकाल सम्राट की इच्छा पर निर्भर था। न्यायाधीशों को किंग्स बैंच के न्यायाधीशों के समान माना गया था। मुख्य न्यायाधीश को निर्णायक मत देने की शक्ति प्रदान की गई थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित तीन व्यक्तियों में से किसी एक को सपरिषद गवर्नर को शेरिफ नियुक्त किया जाता था। जिस का काम न्यायालय के आदेशों का निष्पादन करना और न्यायालय द्वारा वांछित व्यक्ति को कारागार में बंदी बनाए रखना होता था।
सुप्रीमकोर्ट की अधिकारिता
सुप्रीम कोर्ट को समस्त अपराधिक, दीवानी, नावाधिकरण संबंधी तथा धार्मिक मामलों की सुनवाई कर निर्णीत करने का अधिकार दिया गया था। उसे रिटें जारी करने की शक्ति भी प्रदान की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अपील किंग इन कौंसिल में की जा सकती थी। न्यायाधीशों को शांति न्यायाधीशों के रूप में प्रिविकौंसिल के न्यायाधीशों के समान अधिकार प्रदत्त किए गए थे। यह न्यायालय हिज मेजेस्टी की प्रजा के विरुद्ध अपराध और अन्यायपूर्ण आचरण से संबंधित शिकायतें सुन कर उन का निर्णय कर सकता था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में हिज मैजेस्टी की प्रजा, उन के कर्मचारियों और कर्मचारियों के कर्मचारियों के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई करने का अधिकार भी सुप्रीम कोर्ट को दिया गया था। इस तरह इन क्षेत्रों के बहुत से निवासी सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता में नहीं आते थे। इस कमी की पूर्ति के लिए यह प्रावधान किया गया था कि इन क्षेत्रों के देशी व्यक्तियों के विरुद्ध लघुवादों की सुनवाई यह न्यायालय कर सकता है यदि संविदा लिखित में हुई हो। यदि वादमूल्य 500 रुपए से अधिक का हो तो देशी व्यक्ति की सहमति आवश्यक थी। वादी के रूप में कोई भी व्यक्ति वाद प्रस्तुत कर सकता था।
हिज मैजेस्टी के प्रजाजनों , उन के कर्मचारियों के द्वारा किए गए अपराधों पर विचारण करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को था। लेकिन मृत्युदंड के निष्पादन के लिए क्राउन की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। किंग इन काउंसिल के परामर्श पर मृत्युदंड को निलम्बित कर सकता था और उस के स्थान पर अन्य दंड दे सकता था। गवर्नर जनरल, उस की परिषद के सदस्यों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को दाण्डिक अधिकारिता से मुक्त रखा गया था। उन्हें देशद्रोह और अन्य कुछ गंभीर अपराधों के अतिरिक्त बंदी नहीं बनाया जा सकता था और उन के मामलों पर विचार भी नहीं किया जा सकता था। सु्प्रीम कोर्ट को साम्य न्यायालय के रुप में इंग्लेंड के हाईकोर्ट ऑफ चांसरी के समान अधिकार दिए गए थे। इस तरह वह विवेक और शुद्ध अंतःकरण के आधार पर निर्णय कर सकता था और विधि के तकनीकी सिद्धांतों से बाध्य नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट बंगाल, बिहार और उड़ीसा के ब्रिटिश प्रजाजनों के धार्मिक मामलों को इंग्लेंड में प्रचलित विधि के अनुसार निर्णीत कर सकता था। वसीयती मामलों में प्रोबेट व गैरवसीयती मामलों में प्रशासन पत्र जारी कर के उस की संपत्ति के निष्पादक के रूप में कार्य कर सकता था। वह अवयस्क और मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के मामलों में संरक्षक नियुक्त कर सकता था। सुप्रीम कोर्ट को परमादेश, उत्प्रेरण, प्रक्रिया और त्रुटि संबंधी रिटें जारी करने का अधिकार था। वह बंगाल, बिहार और उड़ीसा के उन्मुक्त समुद्र क्षेत्र में होने वाले नौकाधिकरण से संबद्ध अपराधिक और दीवानी मामले सुन सकता था।
प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट को न्याय प्रशासन को युक्तिसंगत रीति से चलाने के लिए प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने का अधिकार था जिन्हें सम्राट स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकता था। साधारणतः इंग्लेंड में प्रचलित नियमों का उपयोग करने का अधिकार था विशेष परिस्थिति में ही इन नियमों का सृजन किया जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णीत 1000 पैगोडा से अधिक मूल्य के मामलों तथा दाण्डिक मामलों में निर्णय की तिथि से छह माह के भीतर सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से किंग इन काउंसिल के समक्ष अपील की जा सकती थी।
बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट ,धन्यवाद.
aapki tarif ke liye to shabd hee fike pad jate hain.narayan narayan