कानून नहीं है, शंकर और उस के आदिवासी साथी क्या करें?
शंकर राजस्थान के बाराँ जिले के शाहबाद उपखंड का आदिवासी है। जंगलों की उपज पर सरकार का कब्जा हो जाने के बाद से शहरों में मजदूरी के लिए आने वाले आदिवासियों में वह भी शामिल है। उस का थोडा बहुत पढ़-लिख लेना उस की अतिरिक्त योग्यता है जिसने उसे साथी मजदूरों का लीडर बना दिया है। साथ मजदूरी करने वाले आदिवासियों की मजदूरी वही तय करता है। यह काम देने वालों के लिए भी सुविधाजनक है, वे सारे मजदूरों की मजदूरी शंकर को ही दे देते हैं, वह सब मजदूरों को मजदूरी बांट देता है। उसे मजदूरों के काम की देखभाल करने और मजदूरी बांटने के लिए मजदूरी मिलती है। इस तरह वह मुन्शी का काम करता है। मगर मुन्शी तो स्थाई मजदूर होता है जब कि वह पूरी तरह से कैजुअल है इसलिए उसे मुन्शी के स्थान पर जमादार कहा जाता है।
आम तौर पर मजदूरी दिन के हिसाब से तय होनी चाहिए, लेकिन इसमें बहुत अड़चनें हैं। एक तो सरकार ने न्यूनतम मजदूरी निश्चित कर रखी है, दूसरे दिन भर के आठ घण्टों में मजदूर कितना काम करेगा कुछ ठीक नहीं। इसलिए ठेकेदार जहां सम्भव होता है काम की ही रेट तय कर लेते हैं। इतनी मिट्टी खोदने पर इतनी मजदूरी, ऐसे। इस में सब मजदूरों के सामने जमादार मजदूरी बांट देता है।
पिछले दिनों शहर की हर साल टूट जाने वाली सड़क को आठ फुट गहराई तक खोद कर अच्छे से बनाया जा रहा है। शंकर और उसके साथी मजदूरों ने वहां खुदाई का काम किया, जितनी खुदाई उतनी मजदूरी, के हिसाब से। बीच-बीच में जरूरत पड़ी तो दिन मजदूरी के हिसाब से भी मजदूर दिए। पहले तो ठेकेदार मजदूरी देता रहा। जब काम खत्म होने को हुआ तो आखिरी महीने की मजदूरी डकार गया। शंकर और उसके साथी मजदूरों ने बहुत मिन्नतें की, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।
शंकर को किसी समझदार ने सुझाया कि उसे किसी वकील की मदद लेना चाहिए। वह वकील तक पंहुच चुका है। वकील ने उसकी सारी बात सुनी। अब वकील पशोपेश में है, शंकर को कैसे न्याय दिलाया जाए?
शंकर के पास दस्तावेजों के नाम पर केवल मजदूरों की हाजरी का रिकार्ड है, जो खुद उसका ही बनाया हुआ है। इस के अलावा एक मुड़ी-तुड़ी डायरी है, इसमें भी उस ने ही हिसाब लिखा हुआ है। अब इन के सहारे तो कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
नई परिस्थितियों ने मजदूरी के इस नए रूप ने जन्म लिया है। जहाँ मजदूरों का एक समूह अपने लीडर के नेतृत्व में काम करने का कॉन्ट्रेक्ट करता है और सबकी मजदूरी उनका मुखिया प्राप्त कर के सब के बीच बांट देता है। मजदूरी वितरण का यह काम ठेकेदार के सामने ही हो जाता है। मजदूरी के इस नए रूप के लिए कोई कानून नहीं है। मौजूदा कानून में तो जमादार को पेटी कॉन्ट्रेक्टर माना जाएगा। यदि वह मुकदमा करे तो उसके पास कॉन्ट्रेक्ट होना चाहिए, जो शंकर के पास नहीं है। यदि कुछ होता भी तो एक लाख की वसूली का दीवानी मुकदमा करने के लिए कम से कम दस हजार रुपए कोर्ट फीस और खर्चे के लिए चाहिए, जो शंकर कहाँ से लाए?
शंकर और उसके साथी मजदूरों के रूप में मुकदमा करना चाहे तो श्रम अदालत सब मजदूरों की मजदूरी के धनराशि जिम्मेदारी शंकर पर ही डाल देगी, अधिक से अधिक यह कहेगी कि वह ठेके की राशि के लिए ठेकेदार पर दीवानी मुकदमा करे।
वकील साहब के पास कोई कानूनी उपाय नहीं है। वे शंकर को लेबर इन्सपेक्टर के पास ले गए। लेबर इन्सपेक्टर ने शंकर के साथ बहुत सहानुभूति दिखाई। उन्हों ने ठेकेदार को टेलीफोन पर खूब लताड़ भी पिलाई। पर साथ ही यह मजबूरी भी कि कानून नहीं है। ठेकेदार पहले तो कहता रहा कि वह सारी मजदूरी का भुगतान कर चुका है, फिर घाटा हो जाने का रोना रोता रहा। अन्त में उस ने शंकर को उस के पास भेजने को कहा, और कहा कि वह मदद करेगा।
ठेकेदार लाख रुपए की मजदूरी खा कर दस-बीस हजार की मदद करने की कह रहा है। शंकर के पास कानून नहीं है, वह मदद नहीं मजदूरी चाहता है।
आप पाठकों के पास कोई जवाब हो तो बताऐं। शंकर और उस के आदिवासी साथी क्या करें?
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Aise case ke liye kanoon banane ke bare mein aapka kya vichar hai.
Kyon na shram kanoon mein change karke usmen sab sthitiyan jodi jayen jo aaj ki vastvikta dikhati hain. Tan kewal Shankar hi nahin sabhi majdooron ka bhala hoga. Aur koi thekedar shoshan nahi kar payega.
ज्ञान भइया की बात सही है. मैं उससे सहमत हूँ.
ये सरासर शोषण है। लेकिन कानून साक्ष्य मानता है। कुछ नहीं तो शंकर जैसे लोगों को भविष्य के प्रति सावधान रहना होगा और सचेत भी। लेबर ऑफिसर अगर दबाव बनाये ठेकेदार पर तो काफी कुछ किया जा सकता है।
संत आदमियों को न्याय की भी आवश्यकता नहीं पडती द्विवेदी जी और कानूनन उस ठेकेदार को सजा दिलाने के अन्य तरीके भी अपनाये जा सकते हैं । सार्वजनिक तौर पर धरना प्रदर्शन भी कम प्रभावी नहीं रहता आजकल तो मजदूर यदि गलत कर के भी धरने में बैठ जाए तो गली नुक्कडो में बैठे गैर सरकारी संगठनों के द्वारा ऐसे लोगों को सहायता देने के लिए खडे हो जाना कोई बडी बात नहीं है ।
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कानूनी स्थिति तो आपने स्पष्ट कर दी है। मैं तो श्रम अधिकारी के कोण से सोच सकता हूं। अगर वह भ्रष्ट नहीं है और केवल घड़ियाली आंसू नहीं दिखा रहा, तो कानून के इतर मदद कर सकता है। ठेकेदार आगे भी रहेगा और श्रम अधिकारी से वैर ले कर नहीं रह पायेगा।
पर हालत गरीब के खिलाफ तो है ही।