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कोई इस आग को लगने से रोक पाएगा?

कोई व्यक्ति जब किसी कंपनी में ऐसा नियोजन प्राप्त कर लेता है, जिस में सेवा की अवधि उल्लखित नहीं होती तो सामान्यतः  उस का नियोजन सुरक्षित है, वह नियोजन की चिंता से मुक्त हो कर काम में जुट जाता है। लेकिन बहुत कर्मचारियों के साथ यह होता है कि अचानक किसी दिन उस का बॉस कहता है कि तुम त्यागपत्र दे दो। इस तरह कर्मचारी अचानक साँसत में आ जाता है। वह जानता है कि यदि उस ने त्यागपत्र नहीं दिया तो किसी भी तरीके से उसे नियोजन से अलग कर दिया जाएगा। उस की बकाया राशियाँ ग्रेच्युटी, भविष्य निधि आदि को प्राप्त करने में उसे रुला लेगी। उसे अनुभव प्रमाण पत्र भी प्राप्त नहीं होगा। यह भी हो सकता है कि उस की सेवाएँ समाप्त करते समय ऐसा आदेश पारित कर दिया जाए कि उस के भविष्य के कैरियर पर प्रश्नचिन्ह लग जाए। ऐसे में वह सोचता है कि त्याग-पत्र देने में ही उस की भलाई है। कम से कम उसे बकाया राशियाँ एक-मुश्त मिल जाएंगी। अनुभव प्रमाण पत्र मिलेगा जिस के माध्यम से वह नया नियोजन प्राप्त कर सकेगा। किसी भी कर्मचारी को त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह गैरकानूनी है। 
से में यदि त्याग-पत्र मांगा जाए, और कर्मचारी न दे तो क्या करे? कर्मचारी के पास यह विकल्प है मौजूद है कि वह अपने बॉस को कहे कि वह नया नियोजन तलाश कर रहा है। जैसे ही कोई ऑफर मिलता है, वह त्याग पत्र दे देगा। हो सकता है उस का बॉस या कंपनी इस बात के लिए तैयार हो जाए। लेकिन इस के लिए वह दो-तीन माह से अधिक का समय नहीं देगी। इस बीच दूसरा नियोजन न मिले तो बॉस/कंपनी और कर्मचारी के मध्य संबंध खराब होने लगेंगे। स्थिति खरबूजा और चाकू जैसी बन जाती है। कर्मचारी त्यागपत्र दे तो तुरंत नियोजन से हाथ धो बैठेगा और बेरोजगारों की कतार में जा खड़ा होगा। नहीं देता है तो कंपनी न केवल उस का नियोजन समाप्त कर देगी, अपितु ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देगी कि उसे नियोजन मिलने में कठिनाइयाँ आने लगें। 
से में यदि कोई कर्मचारी त्याग पत्र नहीं देता है और कंपनी उसे नौकरी से निकाल देती है, तो कर्मचारी की सेवा समाप्ति गैर-कानूनी होगी। कर्मचारी उसे कानून के समक्ष चुनौती दे सकता है। यदि वह औद्योगिक विवाद अधिनियम में वर्णित श्रमिक (workman) है तो उसे इसी अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही करनी चाहिए। यदि किसी कर्मचारी की सेवा समाप्ति अवैध है तो वह न्यायालय से यह अधिनिर्णय प्राप्त  कर सकता है कि उसे पुनः नौकरी पर लिया जाए, बीच की अवधि का पूरा या आंशिक वेतन व अन्य लाभ भी अदा किए जाएँ। लेकिन भारत के सभी नियोजक जानते हैं कि देश में पर्याप्त अदालतें नहीं हैं। यदि कर्मचारी ने अदालत का रुख किया तो सामान्य रूप से ही मुकदमे में निर्णय में पाँच-दस वर्ष और कहीं कहीं बीस या उस से भी अधिक समय लग जाएगा। नियोजक अपने धन-बल का उपयोग कर इस पाँच-दस वर्ष की अवधि को दुगना भी कर सकते हैं। इस बीच कर्मचारी थक जाएगा। वह कहीं तो नियोजन प्राप्त कर ही लेगा। धीरे-धीरे मुकदमे से उस का मोह टूट जाएगा और  तब अपनी शर्तों पर मुकदमा समाप्त करने के लिए उसे तैयार किया जा सकता है। कुल मिला कर नियोजक को कुछ भी हानि नहीं होगी।  
स तरह भारत में त्वरित न्याय उपलब्ध न होने के कारण सभी नियोजक अपने कर्मचारियों के साथ मनमानी करने लगे हैं। कर्मचारियों के लिए न्याय की उपलब्धि असंभव की सीमा छू चुकी है

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