खुद सेवा त्याग कर देने पर नियमित होना संभव नहीं है।
|संदीप दुबे ने नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश राज्य से समस्या भेजी है कि
मैं कार्यालय जनपद पंचायत में विगत 2002 से 2013 तक कम्प्यूटर आपरेटर के पद पर कार्य्ररत रहा। 2002 मेरा वेतन कलेक्टर रेट पर स्वीकृत हुआ था परंतु कभी मुझे 2400 दिया जाता था तो कभी 1000 रू ही, कभी 9000 दिया जाता था तो कभी 4800 ही। ऐसा मेरे साथ होने के कारण मानसिक रूप से परेशान रहने से मैैंने नौकरी छोड दी। लेकिन अब मुझ से सभी लोग कहते हैं कि मै नियमित हो सकता हूँ। माननीय न्यायालय की शरण में जाने के संबंध में क़़पया उचित मागदर्शन देने का कष्ट करें।
समाधान-
आप के विवरण से पता नहीं लगता है कि आप का नियोजन किस प्रकार का तथा किस श्रेणी का था। आप के विवरण से ऐसा आभास होता है कि आरंभ में आप को निश्चित वेतन पर नियोजित किया गया था। लेकिन बाद में आप का नियोजन समाप्त कर के आप को एक सेवा प्रदाता के रूप में वेतन दिया जाता रहा। अर्थात आप को आप के काम के हिसाब से आप का मेहन्ताना दिया गया। वैसे ही जैसे आप किसी दर्जी को सिलाई का पैसा कपड़े सिलने के हिसाब से देते हैं। दर्जी सेवा प्रदाता तो होता है लेकिन कर्मचारी नहीं। एक सेवा प्रदाता कभी भी सेवा में नियमित नहीं हो सकता।
यदि आप सेवा प्रदाता न भी हों और वेतन पर कार्य कर रहे हों तब भी नियमितिकरण उसी कर्मचारी का किया जा सकता है जो कि सेवा में रहते हुए नियमित होेने की मांग करे। आप तो अपना काम खुद अपनी इच्छा से ही छोड़ चुके हैं। वैसी स्थिति में नियमितिकरण की कोई संभावना रही भी होगी तो उसे आप समाप्त कर चुके हैं। हमारे यहाँ मुफ्त की सलाह जो ललचाती है देने वाले बहुत लोग हैं। लोग लालच में आ कर मुकदमा कर देते हैं और बरसों लड़ने में पैसा और समय नष्ट करने के बाद उन्हें उस अदालती लड़ाई से कुछ भी हासिल नहीं होता। बेहतर है कि आप छोड़ी हुई नौकरी और नियमतिकरण के बारे में सोचना बन्द कर दें।
बहुत सही सलाह ..
कोर्ट कचरी की सलाह बहुत दे देते हैं लेकिन बाद में थक हार भटक भटक कर कई लोग बैरंग लौट आते हैं … मध्यप्रदेश में विभिन्न शासकीय विभागों में कार्यरत दैनिक वेतन भोगी जिन्हें २५-३० साल हो चुके है लेकिन कई के उच्च न्यायालय से निर्णय के बाद भी आज तक नियतिमीकरण नहीं हुआ है वहीँ बहुत से ऐसे भी हैं जो सुप्रीम कोर्ट से जीतकर नियमित हुए हैं लें कई के केश उसी आधार पर हैं लेकिन कई साल से सुप्रीम कोर्ट में लटके हुए हैं ..बहुत लम्बी बेचारगी भरी कहानी है .. समझ से पर हैं एक के लिए जो निर्णय होता है वह दूसरे के लिए क्यों नहीं? उसे क्यों वही लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है? इस बारे में बहुत बार विस्तार से लिखने को सोचती हूँ लेकिन सर्विस में हैं इसलिए सोचती हूँ कहीं सरकार अपने पीछे ही न पड़ जाय..