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जॉन शोर के न्यायिक सुधार : भारत में विधि का इतिहास-50

वारेन हेस्टिंग्स  (1772-1786) और लार्ड कार्नवलिस (1786-1793) ने अपने कार्यकाल के दौरान न्यायिक व्यवस्था के सुधारों पर जोर दिया। दोनों के प्रयासों से न्यायिक व्यवस्था ने देश की जनता को न्याय के प्रति आशान्वित किया था। लेकिन फिर भी यह व्यवस्था दोषहीन नहीं थी। इन दोषों के कारण न्याय प्रशासन में गतिरोध उत्पन्न होने लगा। लचीलेपन और न्यायशुल्क की समाप्ति के कारण दीवानी अदालतों में मुकदमों का अंबार खड़ा हो गया। इस का एक अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सन् 1795 में अकेले बर्दवान जिले में लगभग 30 हजार मुकदमे लंबित थे। इस का प्रभाव यह भी हुआ था कि राजस्व वसूली में बाधा उत्पन्न हो गई। जमींदारों के पास राजस्व वसूली का दायित्व था लेकिन उन्हें वसूली के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं दी गई थी। निचले न्यायालयों की स्थिति शोचनीय हो चुकी थी। न्याय व्यवस्था को गतिशील बनाए रखने के लिए तत्काल प्रयत्न करना आवश्यक हो चुका था। लॉर्ड कॉर्नवलिस के बाद नियुक्त  जिन गवर्नर जनरलों ने न्याय प्रणाली को गति देने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए उन में जॉन शोर, वेलेजली, मिन्टो, लार्ड हेस्टिंग्स,एमहर्स्ट और विलियम बेंटिक का नाम प्रमुख है।
जॉन शोर के प्रयास
लॉर्ड कॉर्नवलिस की इंग्लेंड वापसी के उपरांत जान शोर को 1793 में कलकत्ता का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया।  उस ने लॉर्ड कॉर्नवलिस द्वारा स्थापित व्यवस्था में आवश्यक संशोधन किए।  उस ने 1794, 1795 तथा 1797 में  अपने सुधार प्रस्तुत किए। उस ने दांडिक न्यायप्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं किया। दीवानी न्याय के क्षेत्र में उस ने मूल रूप से लॉर्ड कॉर्नवलिस की शुचितापूर्ण, मितव्ययी और गतिशील प्रशासन की नीति को आगे बढाया। 
1794 के न्यायिक सुधार
जॉन शोर ने 1793 की योजना में गठित रजिस्ट्रार के न्यायालय की अधिकारिता में वृद्धि कर के 25 रुपए तक मूल्य के दीवानी मामलों पर निर्णय देने का स्वतंत्र अधिकार दे दिया। इस से पूर्व इस न्यायालय के प्रत्येक निर्णय पर दीवानी न्यायालयों का अनुमोदन आवश्यक था। 25 रुपए मूल्य तक के इस न्यायालय के निर्णय पक्षकारों पर बाध्यकारी होने लगे। इस से अधिक मूल्य तक के निर्णयों के विरुद्ध प्रान्तीय न्यायालयों को अपील की जा सकती थी। इस कदम से दीवानी न्यायालयों पर से कार्यभार कम हुआ और न्यायिक व्यवस्था को गति प्राप्त हुई।
न सुधारों के अंतर्गत दीवानी न्यायालयों को शक्ति प्रदान की गई थी कि वे लेखा समायोजन के जटिल मामलों में उन की जाँच करने और रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कलेक्टरों को निर्देश दे सकते थे। कलेक्टरों के पास इन मामलों से संबधित रेकॉर्ड होता था और वे उस का विवरण अविलंब अदालत को प्रेषित कर सकते थे। इस से दीवानी अदालतों को अपने काम में सुविधा हो गई और वे त्वरित निर्णय करने में सक्षम हो गए। कलेक्टरों की रिपोर्टें अदालत पर आबद्धकर नहीं होती थीं। जिन मामलों में कलेक्टर स्वयं या उन का कोई अधीनस्थ अधिकारी पक्षकार होता था उस में इस प्रकार की रिपोर्ट प्रस्तुत करना ऐच्छिक था।
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