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दांडिक न्याय प्रशासन में 1790 के सुधार : भारत में विधि का इतिहास-46

लॉर्ड कार्नवलिस द्वारा किए गए सुधार के प्रयत्न महत्वपूर्ण थे। उस ने न्यायालय के कर्मचारियों के वेतनों में वृद्धि कर दी थी, जिन में भारतीय सहायक कर्मचारी भी सम्मिलित थे। उन्हें सेवा सुरक्षा प्रदान की गई थी। सभी कर्मचारियों को किसी भी प्रकार का उपहार, फीस अथवा कमीशन लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया था। वह भ्रष्टाचार को निर्मूल कर देना चाहता था। रजिस्ट्रार, अमीन और मुफ्ती को वेतन न दिया जा कर कमीशन देने की व्यवस्था की गई थी। दरोगा का वेतन दस रुपए निर्धारित किया गया था, उसे चोरी आदि पकड़े जाने पर कमीशन भी मिलता था। इस से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने के स्थान पर उस के लिए स्थान बन गया था। दरोगा अपराधियों की अपेक्षा भद्र व्यक्तियों के लिए आतंक का प्रतीक बनने लगा था। रिमेंम्बरेंसर के पद को अनावश्यक मान कर समाप्त कर दिया गया। जेल से छूटने वाले अपराधियों का परिष्कार करने के लिए मुक्ति के समय अधिकतम पाँच रूपया देने की व्यवस्था की गई थी। जिस से वह बाद में सम्मान पूर्वक जीने के लिए प्रेरित हो सके। 
र्किट न्यायालयों में कार्याधिक्य के कारण लगातार लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ रही थी। इस के लिए 1792 में मजिस्ट्रेट को तीस कोड़ों व एक मास तक के कारावास का दंड देने की अधिकार दे दिए गए। लेकिन इस व्यवस्था से भी काम नहीं बना बंदियों को लम्बे समय तक निर्णय की प्रतीक्षा में जेल में बिताना पड़ता था।   लार्ड कार्नवलिस ने गवर्नर जनरल द्वारा निर्मित विनियमों की जानकारी आम लोगों को पहुँचाने के आदेश जारी किए थे। लेकिन एक सुनिश्चित संहिता के अभाव के कारण विधि अधिकारियों के मतों में भिन्नता रहती थी जिस के कारण न्याय में अवरोध उत्पन्न होता था। हर चीज अनिश्चित और अस्पष्ट थी। भारतीय व्यक्तियों को न्याय प्रशासन में कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इस तरह भारतियों के प्रति भेदभाव किया गया था। लार्ड कार्नवलिस की यह योजना ‘नियंत्रण और संतुलन ‘ के सिद्धांत पर आधारित थी। जिस से विचारण का कार्य निष्पक्षता और योग्यता पूर्वक किया जा सके और सभी लोगों को न्याय सुलभ हो सके। साथ ही धनी और निर्धन लोगों को न्याय प्राप्ति के अवसर सुलब कराने के उपाय भी किए गए थे। 
स योजना के अंतर्गत मुस्लिम दंड विधि में महत्वपूर्ण सुधार किए गए थे। हत्या के अपराध में मृतक के संबंधियों द्वारा क्षमादान की परंपरा को समाप्त कर दिया गया था। 1791 में अंगच्छेदन के अमानवीय दंड को समाप्त कर उस के स्थान पर सात वर्ष के कारावास देना आरंभ किया गया। अपराधी की दूषित मनोवृत्ति को अपराध का आधार माना जाने लगा था। 
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