DwonloadDownload Point responsive WP Theme for FREE!

नंदकुमार के मामले में उठे विधि के प्रश्न : भारत में विधि का इतिहास-33

राजा नन्दकुमार को फोर्ट विलियम के नजदीक कुली बाजार में सार्वजनिक रूप से  दी गई फाँसी की सजा ने भारतीय जनमानस में अंग्रेजी न्याय व्यवस्था के प्रति घृणा को उभार दिया।  हर तरफ इस मुकदमे के विचारण की आलोचना हुई। अधिकांश विधिज्ञों ने उस विचारण की निम्न बिंदुओं के आधार पर आलोचना की है …

1. अंग्रेजी विधि को भूतलक्षी प्रभाव से लागू किया जाना

 विधि का का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी भी विधि को उस के प्रभाव में आने की तिथि से पूर्व की अवधि के लिए लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि स्वयं विधि में ही ऐसा प्रावधान नहीं कर दिया गया हो। नन्दकुमार पर दस्तावेज की कूटरचना का आरोप लगाया गया था। यह भारत में प्रचलित हिन्दू या मुस्लिम विधि के अनुसार मृत्युदंड से दंडनीय अपराध नहीं था। कलकत्ता में सुप्रीमकोर्ट का गठन और उस की अधिकारिता का विनिश्चय 1774 में रेगुलेटिंग एक्ट के प्रभाव में आने पर ही हुआ था। उसी से अंग्रेजी विधि का प्रवर्तन आरंभ हुआ। इस के पूर्व की तिथियों में किए गए किसी अपराध का विचारण इस नई विधि के अनुसार नहीं किया जा सकता था और न ही उस के अनुसार किसी भी अभियुक्त को दंड दिया जा सकता था।  रेगुलेटिंग एक्ट में यह उल्लेख भी नहीं था कि यह विधि प्रवृत्त होने के पूर्व की तिथि में किए गए किसी कृत्य के लिए अंग्रेजी विधि लागू होगी। राजा नन्दकुमार पर जिस परिकल्पित कूट रचना का आरोप लगाया गया था वह 1770 में की गई थी।  इस तरह अंग्रेजी विधि को लागू कर उस के अंतर्गत मृत्यु दंडादेश देना और उस का प्रवर्तन किया जाना सर्वथा अवैध, शून्य और निष्प्रभावी था।
2. कलकत्ता सुप्रीमकोर्ट की विवादास्पद अधिकारिता
रेगुलेटिंग एक्ट अनुसार सुप्रीमकोर्ट की अधिकारिता में केवल ब्रिटिश प्रजाजनों को ही सम्मिलित किया गया था और इसी रूप में कलकत्ता के निवासियों पर ब्रिटिश विधि को प्रवृत्त किया गया था। लेकिन नन्दकुमार न तो ब्रिटिश प्रजाजन था और न ही कलकत्ता का निवासी था।  इस मामले का विचारण कर के सुप्रीमकोर्ट ने अपनी ही अधिकारिता का उल्लंघन किया था। राजा नन्दकुमार के विरुद्ध जो खुद एक देशज व्यक्ति था यह मामला एक देशज व्यक्ति ने प्रस्तुत किया था। इस कारण भी उस के मामले में अंग्रेजी विधि के अनुसार विचारण नहीं किया  जा सकता था। सुप्रीमकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एलीजा इंपे को 12 दिसंबर 1787 को ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स के समक्ष अपनी सफाई में कहना पड़ा था कि “निश्चय ही किसी कलकत्ता प्रेसीडेंसी में निवास करने वाले किसी देशज व्यक्ति पर अंग्रेजी विधि का प्रवर्तन नहीं किया जा सकता था। किन्तु ऐसे देशज व्यक्ति पर जिस की कलकत्ता में संपत्ति थी उस पर यह विधि प्रवृत्त की जा सकती थी।” एलीजा इंपे ने इस के लिए 1765 में राधाचरण मित्र के मामले की नजीर भी पेश की जिस में उसे कूटरचना के लिए मृत्युदंड दिया गया था। लेकिन यह नजीर किसी भी रूप में राजा नन्दकुमार के मामले में लागू नहीं की जा सकती थी। क्यों कि उस समय न तो कलकत्ता सुप्रीमकोर्ट की स्थापना हुई थी और न ही 1728 का कानून भारत में लागू किया गया था। इस के साथ ही राधाचरण के मामले को निदेशक ने क्षमादान कर के उदारता बरती थी।
3. त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया
राजा नन्दकुमार के मामले में सुप्रीमकोर्ट के जिन दो न्यायाध
ीशों ने सुपुर्दगी मजिस्ट्रेट के रूप में काम किया था, उन्हें ही सुप्रीमकोर्ट में मामले का विचारण करने के लिए पीठासीन कर दिया गया।  इस प्रकार जिस मामले में जो व्यक्ति अभियोजन का हिस्सा रह चुके थे, उसी मामले में उन के द्वारा न्यायाधीश का आसन ग्रहण करना न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत था। इस तरह न्याय रिकार्ड पर भी निष्पक्ष नहीं रह गया था।
4. बचाव का निष्प्रभावी अवसर
सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों ने विचारण के समय बचाव पक्ष के साक्षियों से कड़ी प्रतिपरीक्षा करने दी और उन्हें दबाव में बयान देने को बाध्य किया गया। जिस का तत्कालीन न्यायिक व्यवस्था मे इस प्रकार का दूसरा कोई भी उदाहरण देखने को भी नहीं है। संभवतः मुख्य न्यायाधीश इम्पे ने जानबूझ कर ऐसी परिस्थति उत्पन्न की थी बचाव पक्ष के साक्षियों के समक्ष गहरा तनाव पैदा किया जाए जिस से नन्दकुमार के विरुद्ध  परिस्थितियाँ पैदा की जा सकें।
5. अपील की सुविधा से इन्कार
राजा नन्दकुमार के वकील ने रेगुलेटिंग एक्ट के उपबंधों के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट से मृत्युदंड को निलंबित करने और निर्णय के विरुद्ध अपील प्रस्तुत करने की अनुमति चाही थी। लेकिन मुख्य न्यायाधीश इंपे ने आवेदन को अस्वीकार कर अपील की अनुमति नहीं दी। सु्प्रीमकोर्ट मामले के दस्तावेजों को ब्रिटेन के सम्राट को भेज कर इस मामले को क्षमादान के लिए भी प्रेषित कर सकता था, लेकिन राजा नन्दकुमार को यह सुविधा भी नहीं दी गई।  इस से इस संदेह को बल मिलता है कि राजा नन्दकुमार को, जो कि हेस्टिंग्स के विरुद्ध अनेक मामलों में स्वयं साक्षी था और दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने में सक्षम था, हेस्टिंग्स के विरुद्ध साक्ष्य नष्ट करने लिए ही बलि चढ़ा दिया गया।
6. भारतीय परंपरा के विरुद्ध 
स से पूर्व भारत में कभी भी कूटरचना के अपराध के लिए किसी भी व्यक्ति को मृत्युदंड नहीं दिया गया था। राजा नन्दकुमार एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण था और भारतीय विधि के अनुसार एक ब्राह्मण को किसी भी परिस्थिति में मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था।  एक ब्राह्मण के मामले में अंग्रेजी विधि लागू कर  के भी मृत्युदंड का निष्पादन नहीं किया जा सकता था। 
अगले अंक में आप पढ़ेंगे : राजा नन्दकुमार के मामले में इतिहासकारों के मत
6 Comments