मद्रास में न्यायिक प्रशासन के विकेन्द्रीकरण के लिए आयोग का गठन : भारत में विधि का इतिहास-66
|सन् 1802 में मद्रास में लागू की गई न्याय व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी। इस से अदालतों में मुकदमों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. उन के निपटारे में विलम्ब होने लगा। न्यायपालिका और कार्यपालिका का एकीकरण उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ। कुछ समय के बाद ही न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता महसूस होने लगी। 1806 के चौथे विनियम द्वारा सदर दीवानी अदालत में न्यायाधीशों के रूप में कार्यरत परिषद सदस्यों को न्यायिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया। उन के स्थान पर दो ऐसे सदस्यों को नियुक्त किया जाने लगा जो परिषद के सदस्य नहीं हों, लेकिन न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अब भी गवर्नर ही रहा। 1807 के तीसरे विनियम से गवर्नर को भी इस दायित्व से मुक्त कर दिया गया और उस के स्थान पर परिषद के किसी अन्य सदस्य को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाने लगा। न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा कर दो से तीन कर दी गई। बाद में न्यायाधीशों की संख्या का प्रतिबंध भी समाप्त कर दिया गया अब गवर्नर और उस की परिषद को पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार दे दिया गया।
सन् 1809 में अधीनस्थ न्यायालयों में सुधार करने का प्रयत्न किया गया। जिला न्यायालयों के कार्य को कम करने के लिए स्थानीय निवासियों को सदर अमीन नियुक्त करने का उपबंध किया गया। उसे 100 रुपए मूल्य तक के दीवानी वादों का निर्णय करने की अधिकारिता प्रदान की गई, जिन की अपील जिला न्यायालय को की जा सकती थी। यदि दीवानी अदालत सदर अमीन के निर्णय को उलट देती थी तो उस निर्णय की अपील प्रांतीय न्यायालय को की जा सकती थी। विनियम 12 के द्वारा जिला दीवानी अदालत की अधिकारिता बढ़ा कर 5000 रुपए मूल्य तक के वाद सुनने का अधिकार दे दिया गया। इस से अधिक मूल्य के वादों की सुनवाई का अधिकार प्रान्तीय न्यायालय को दिया गया। प्रान्तीय न्यायालय जिला अदालत के निर्णयों की अपील सुन सकता था और उस के निर्णयों की अपील सदर दीवानी अदालत को की जा सकती थी।
इन सुधारों से न्यायिक व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो सका। अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती गई। अंग्रेज न्यायाधीश स्थानीय विधियों और परिस्थितियों को समझने में अक्षम बने रहे। इन परिस्थितियों में कंपनी के निदेशक मंडल की राय यह थी कि ग्राम पंचायतों को न्याय करने के लिए सक्षम बनाया जाए और न्याय प्रशासन का विकेन्द्रीकरण किया जाए। इस के लिए सर थॉमस मनरो की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया, जिसे परिस्थितियों का अध्ययन कर के अपनी रिपोर्ट देनी थी। इस आयोग ने मद्रास आ कर अध्ययन किया और 1815 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
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7 Comments
बहुत काम की जानकारी है ये. निश्चित रूप से संग्रह के योग्य.
बहुत सुंदर लेख. धन्यवाद
पहली बार इतनी जानकारी भरा लेख पड़ने को मिला पूरा ब्लॉग ही जबरजस्त खज़ाना है जानकारी का
बहुत सुंदर जानकारी.
रामराम.
@अजय कुमार झा
न्याय राज्य का कार्य रहा और हिन्दी राजकाज की भाषा कभी रही नहीं। नतीजा साफ है। भारत में बरसों तक मुस्लिम दांडिक प्रणाली चलती रही। अंग्रेजों ने उसी में सुधार कर के काम चलाया। अब कुछ राज्यों में हिन्दी न्यायालयों की भाषा बन पाई है। जहाँ बनी है वहाँ हिन्दी पुराने फारसी, अरबी और अंग्रेजी शब्दों को प्रतिस्थापित कर रही है। कभी नमूने के बतौर अपने लिखे किसी वाद या प्रार्थना पत्र को तीसरा खंबा पर चेपता हूँ।
संग्रहणीय श्रंखला । जारी रखिए । सर एक बात पर बाद में ही सही जरूर रौशनी डालिएगा कि आज की विधिक शब्दावली सीधे सीधे उर्दू फ़ारसी का अंग्रेजी रूपांतरण हो गई । आखिर हिंदी क्यों नहीं हो पाई और क्या अब ये संभव है वो हिंदी में हो । आज भी अधिकांशत वही शब्द चलन में हैं । मेरी भाषा को लेकर कोई आपत्ति नहीं है बस जिज्ञासावश पूछ रहा था
अच्छी जानकारी.