मेहर क्या है? यह कब भुगतान योग्य होती है?
|शाहीन ने टोंक, राजस्थान से पूछा है –
आप ने कल बताया था कि यदि मकान का हिस्सा मेहर के रूप में लिखा गया है तो उसे पत्नी तलाक के बाद या उस के पहले कभी भी मांग सकती है। कृपया मेहर के बारे में पूरी जानकारी धाराओँ के साथ देंगे तो मेहरबानी होगी।
समाधान-
वैवाहिक संबंध, उन का विच्छेद, उत्तराधिकार आदि विधियाँ व्यक्तिगत कानून का हिस्सा हैं। भारत में मुस्लिम धर्म के अनुयाइयों पर मुस्लिम विधि प्रभावी है, उसी तरह हिन्दू धर्म के अनुयायियों पर हिन्दू विधि। हिन्दू विधि में देश में स्थान भेद से बहुत से मामूली अन्तर प्रचलित थे। इस कारण से हिन्दू विधि को संहिता बद्ध किया गया और हिन्दू धर्मावलम्बियों पर जिन में जैन व बौद्ध भी सम्मिलित हैं प्रभावी विधि से संबंधित कानूनों का निर्माण किया गया। इन में हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू दत्तकग्रहण एवं भरण पोषण अधिनियम तथा हिन्दू अल्पवयस्क व संरक्षण अधिनियम प्रमुख हैं। लेकिन मुस्लिम धर्मावलंबियों के व्यक्तिगत मामलों में आज भी 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट के अनुसार ही प्रभावी है। यह अवश्य है कि शरीयत की विधि की व्याख्या भारत के सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों ने समय समय पर की है। इस कारण से मुस्लिम विधि से संबंधित किसी भी मामले की चर्चा करते समय किसी कानून की किसी धारा का उल्लेख किया जाना संभव नहीं है।
जहाँ तक मेहर का प्रश्न है तो मुस्लिम विवाह एक कांट्रेक्ट (संविदा) है और इस में निकाह के समय निकाह की शर्तों को स्वीकार करने के प्रतिफल के रूप में स्त्री के लिए मेहर निश्चित होती है। मेहर कोई राशि या संपत्ति हो सकती है। मेहर की राशि निकाह के पहले, निकाह के समय या उस के बाद निश्चित की जा सकती है। विवाह के बाद इस राशि में वृद्धि भी की जा सकती है। यदि मेहर की राशि अनिश्चित हो तो उचित मेहर तय की जा सकती है जिसे मेहर-ए-मिस्ल कहा जाता है। यदि निकाह के समय यह शर्त तय हो चुकी हो कि पत्नी मेहर का कोई दावा नहीं करेगी तो भी पत्नी मांग पर मेहर-ए-मिस्ल तय की जा सकती है। मेहर-ए-मिस्ल किसी स्त्री के मायके के परिवार की हैसियत के आधार पर निश्चित की जा सकती है।
सामान्य रूप से मेहर विवाह के संपादन, खिलावत-ए-साहिबा अथवा पति या पत्नी की मृत्यु पर कन्फर्म हो जाती है। मेहर प्रोम्प्ट तथा डेफर्ड दो तरह की हो सकती है। प्रोम्प्ट मेहर पत्नी की मांग पर देनी होती है, जब कि डेफर्ड मेहर मृत्यु या तलाक के वक्त देना जरूरी है। यदि विवाह के समय यह निश्चित न हो कि मेहर का कौन सा भाग प्रोम्प्ट होगा और कौन सा भाग डेफर्ड होगा तो शिया विधि के अनुसार संपूर्ण मेहर प्रोम्प्ट होती है तथा पत्नी की मांग पर देय हो जाती है। सुन्नी विधि के अनुसार एक भाग प्रोम्प्ट तथा एक भाग डेफर्ड होता है जिन का हिस्सा कुलरीति के अनुसार तय होता है। मद्रास उच्च न्यायालय का यह मानना है कि मामला चाहे शिया विधि का हो या सुन्नी विधि का मेहर सदैव प्रोम्पट ही है और पत्नी की मांग पर देय है। भारतीय न्यायालयों को यह अधिकार है कि वे संपूर्ण मेहर को प्रोम्प्ट और पत्नी की मांग पर देय मानें।
मेहर की मांग पत्नी कभी भी कर सकती है, यदि पत्नी का देहान्त हो जाए तो उस के उत्तराधिकारी मेहर की मांग कर सकते हैं। कई मामलों में तय की गई प्रोम्प्ट मेहर यदि भुगतान न की जाए तो पत्नी सहवास से इन्कार कर सकती है। यदि पति का देहान्त हो जाए और मेहर अदेय रह जाए तो पत्नी को पति के उत्तराधिकारियों से मेहर प्राप्त करने का अधिकार है। पति के देहान्त के उपरान्त पत्नी पति की संपत्ति को मेहर की एवज में अपने कब्जे में बनाए रख सकती है। लेकिन अन्य उत्तराधिकारी मृतक की विधवा को मेहर के भुगतान के उपरान्त अपना हिस्सा उस से प्राप्त कर सकते हैं।
Mene kisi ladki se shadi ki us ladki ne mehar mai 1 laakh rupay likhaway the us ke gar raazi nhi the kyuki wo ladki Hindu ki thi ab uski shadi ho gai hai kisi or saath ab mai mehar kese du kya mera mehar dene hak banta hai ya nhi us ke gar waalo ne mujhe jail bhijwadia tha or mene pe dhara lagi 376 366 Mene us ladki ke ku6nhi kya fir bhi ab mai kya kru mai bhut preshan hu us ladki ki umar 22 saal ki hai please meri madadt
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Mehr has nothing to do with the upkeep of a woman in case of divorce. Mehr, on the contrary, is a token that signifies the acceptance of the financial responsibility of the family that shall come into being through the contract of marriage. Mehr, should ideally be paid at the time of marriage. However, in case of the inability of the person, the payment may be deferred with mutual consent. The amount of Mehr is also decided by the mutual consent of the husband and the wife. There is no minimum or maximum limit set on the amount. The two major factors that may be considered in determining the amount of the Mehr may be the financial position of the man and the general amount of Mehr of other women of the same socio-economic status. Nevertheless, whatever the amount, the concept of Mehr is not of providing financial security to the woman in case of divorce or the death of the husband.
The directive regarding Mehr is independent of any law regarding the distribution of a person’s wealth, in case of divorce.
जो कुछ आप ने लिखा सही है।