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संपत्ति सौदों में स्टाम्प ड्यूटी बचाने का गोरखधंधा

समस्या-

नबीनगर, बिहार से धीरेन्द्र कुमार पूछते हैं-

धिक मूल्य की संपत्ति का मूल्यांकन कम कर के बेचा जाता हो और क्रेता-विक्रेता दोनों सरकारी कर्मचारी हों तो क्या उस की न्यायसंगत शिकायत की जा सकती है?

समाधान-

प का प्रश्न अत्यन्त अस्पष्ट है। कृपया भविष्य में कोई भी कानूनी सलाह प्राप्त करने के लिए अपना प्रश्न स्पष्ट रूप से तथ्यों सहित लिखें।

भारत में किसी भी संपत्ति को विक्रय करने पर उस के बाजार मूल्य के आधार पर स्टाम्प ड्यूटी अदा करनी पड़ती है। इस के लिए राज्यों के राजस्व विभागों में प्रत्येक नगर, गाँव के मुहल्लों के लिए संपत्तियों की एक न्यूनतम मूल्यांकन सूची बना कर रखी जाती है जिस के आधार पर या पंजीकृत किए जाने वाले दस्तावेज में घोषित किए मूल्य के आधार पर पंजीयन कार्यालय में मूल्यांकन किया जाता है और उस मूल्य के आधार पर स्टाम्प ड्यूटी लगानी होती है।  इस न्यूनतम मूल्यांकन सूची को समय समय पर संशोधित किया जाता रहता है।  इस तरह स्टाम्प ड्यूटी निर्धारित करने का कार्य उप पंजीयक का होता है। यदि उप पंजीयक को लगता है कि कम मूल्यांकन किया गया है तो वह पंजीयन कराने वालों को बताता है कि इस पर कितना मूल्यांकन होना चाहिए। यदि उतने मूल्यांकन के लिए आवश्यक स्टाम्प ड्यूटी प्रस्ततु नहीं की जाती है तो उस दस्तावेज को जब्त (impound) कर लिया जाता है जिस पर निर्णय कलेक्टर स्टाम्प करता है। कलेक्टर स्टाम्प द्वारा निर्धारित किए गए मूल्यांकन पर स्टाम्प ड्यूटी अदा करने पर ही दस्तावेज का पंजीकरण किया जाता है।

लेकिन न्यूनतम मूल्यांकन सूची में जो दरें निश्चित की जाती हैं वे अक्सर बाजार मूल्य से आधी या उस से भी कम होती हैं।  इस कारण क्रेता-विक्रेता अक्सर वास्तविक सौदे के मूल्य को छुपा कर इस न्यूनतम मूल्यांकन सूची के आधार पर दस्तावेज में विक्रय मूल्य दर्ज करते हैं जो कि वास्तविक सौदे के मूल्य से बहुत कम होता है।  इस तरह वे स्टाम्प ड्यूटी बचा लेते हैं।  दस्तावेज में दिखाए गए मूल्य और वास्तविक सौदे की राशि के मूल्य के अंतर की राशि का लेन-देन काला-धन द्वारा की जाती है।  इन तथ्यों को हर कोई जानता है पर यह सब खूब धड़ल्ले से चल रहा है। राज्य सरकारें भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हैं। लेकिन वे पर्याप्त राजस्व प्राप्त करने के लिए पहले ही स्टाम्प डयूटी की दरें अधिक रखती हैं और अपने राजस्व की पूर्ति करती हैं। इन मामलों में केवल उन लोगों को हानि उठानी पड़ती है जो लोग संपत्ति खरीदने के लिए वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करते हैं क्यों कि वे अपनी संपत्ति का मूल्यांकन कम दिखाते हैं तो उन्हें ऋण भी उसी अनुपात में कम मिलता है। इस कारण से ऐसे लोग मूल्यांकन ठीक ठीक दिखाते हैं।  इन में से भी अधिकांश लोग कम ऋण लेकर संतुष्ट हो जाते हैं और स्टाम्प ड्यूटी बचाते हैं।

ब भी किसी का विक्रय पत्र पंजीकृत किया जाता है तो उस का मूल्यांकन उपपंजीयक द्वारा किया जाता है और क्रेता-विक्रेता उसी के अनुसार स्टाम्प ड्यूटी अदा करते हैं।  इस कारण से यदि मूल्यांकन पर किसी को शिकायत हो तो सब से पहले उप पंजीयक की शिकायत कलेक्टर स्टाम्प को करनी होगी। यदि कलेक्टर स्टाम्प उप पंजीयक द्वारा किए गए मूल्यांकन को अनुचित पाता है तो वह उस मामले में कार्यवाही करेगा।  यदि शिकायत यह है कि वास्तविक सौदे के मूल्यांकन को छुपाया गया है तो फिर शिकायतकर्ता को उस के सबूत उप पंजीयक अथवा स्टाम्प कलेक्टर को देने होंगे तभी वे कार्यवाही कर सकेंगे।  यहाँ समस्या यह है कि काले धन का जो लेन-देन किया जाता है उसे प्रमाणित करना अत्यन्त कठिन ही नहीं लगभग असंभव होता है।  यदि इस मामले की शिकायत आप क्रेता-विक्रेता के नियोजक कार्यालयों को करते हैं तो वे कोई कार्यवाही नहीं कर सकेंगे। क्यों कि इस मामले में उन्हें कार्यवाही करने का कोई अधिकार नहीं है।  किसी मामले में सक्षम प्राधिकारी या न्यायालय द्वारा दोषी पाए जाने पर ही नियोजक अपने कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है।

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