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हिन्दू पुश्तैनी संपत्ति क्या है?

समस्या-

पिता जी ने जो जमीन बेची है वह उन्हें दादा जी से प्राप्त हुई थी और दादा जी को उन के पिता से नामान्तरण पर मिली थी।  दादा जी के पिता ने वह संपत्ति 1986 में क्रय की थी।    मैं जानना चाहता हूँ कि क्या वह जमीन बेचने का अधिकार पिता जी को है या नहीं और मेरा उस संपत्ति पर कितना हक बनता है?

-अजय कुमार, सीधी, मध्यप्रदेश

समाधान-

प का प्रश्न हिन्दू उत्तराधिकार से संबंधित है।  हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 प्रभावी होने के पूर्व तक हिन्दुओं पर परंपरागत हिन्दू विधि ही मान्य थी जिस में पुश्तैनी संपत्ति का सिद्धान्त मौजूद था।  इस परंपरागत हिन्दू विधि में भी शाखाएँ थीं। जो भिन्न भिन्न हिन्दू समुदायों पर प्रभावी थीं।  किन्तु अधिकांश हिन्दू धरमावलम्बी मिताक्षर विधि को ही मानते थे।  मिताक्षर विधि में उत्तराधिकार केवल पुरुषों को ही प्राप्त होता था। परिवार की अविवाहित व विधवा पुत्रियों और वधुओं को केवल परिवार की संपत्ति में निवास करने और भरण पोषण मात्र का अधिकार प्राप्त था।  केवल स्त्री-धन जो उन्हें उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाली संपत्ति थी तथा स्वअर्जित संपत्ति उन की होती थी।  हिन्दू स्त्री संपत्ति अधिनियम 1937 से पहली बार विधवा स्त्री को उस के पति की संपत्ति में सीमित अधिकार प्राप्त हुए थे।  किन्तु 1938 मे कृषि भूमि पर स्त्रियों के अधिकार को समाप्त कर दिया गया था। 

पुश्तैनी संपत्ति वह संपत्ति है जो किसी व्यक्ति को उस के पिता, दादा या परदादा से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई हो।   इस संपत्ति में संपत्ति प्राप्त करने वाले व्यक्ति के पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र का समान अधिकार होता था।  इस संपत्ति पर कब्जा भी सभी का संयुक्त होता था।  इस संपत्ति के जितने भी भागीदार होते थे उन का हिस्सा उत्तरजीविता के आधार पर घटता बढ़ता रहता था।  यदि भागीदारों में से किसी की मृत्यु हो जाती थी तो उस का हिस्सा समान रूप से शेष सभी सहदायिकों को प्राप्त हो जाता था।  यदि भागीदारों में से किसी के भी पुत्र का जन्म होता था तो वह नवजात अपने जन्म से ही उक्त संपत्ति में बराबर का भागीदार हो जाता था जिस से शेष भागीदारों का हिस्सा कम हो जाता था। इस संपत्ति को किसी एक को विक्रय करने या हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं होता था।  यदि इस संपत्ति के शेष सभी भागीदारों का देहान्त हो जाने से केवल एक ही व्यक्ति रह जाता था तो वह उस संपत्ति को या उस के किसी भाग को विक्रय या हस्तांतरित कर सकता था।  लेकिन जैसे ही उस के कोई संतान उत्पन्न होती थी वह उस संपत्ति में बराबर की भागीदार हो जाती थी।

17 जून 1956 से हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 प्रभावी हो गया और पुश्तैनी संपत्ति की स्थिति परिवर्तित हो गई।   इस अधिनियम की धारा-8 में हिन्दू पुरुष के उत्तराधिकार की जो व्यवस्था दी गई उस के अनुसार अब मृतक के पुत्र, पुत्रियाँ, पत्नी, माता और पुत्र या पुत्री का पहले से ही देहान्त हो जाने पर उन के उत्तराधिकारी समान रूप से उस की संपत्ति प्राप्त करने के अधिकारी होने लगे।  पूर्व में जो संपत्ति केवल पुत्रों, पौत्रों और प्रपोत्रों को प्राप्त होती थी अब इन्हें प्राप्त होने लगी। इन में भी पुत्रियों, पत्नी और माता को प्राप्त होने वाली संपत्ति स्वतः ही पुश्तैनी संपत्ति के क्षेत्र से बाहर चली गई।  लेकिन यह प्रश्न उपस्थित हो गया कि इन में से पुत्र को प्राप्त संपत्ति पर उस के पुत्रों, पौत्रों व प्रपोत्रों का भी  अधिकार होगा।  पुत्री, पत्नी और माता को प्राप्त संपत्ति के हिस्से तो उन की अपनी संपत्ति थे ही लेकिन यदि पुश्तैनी संपत्ति के सिद्धान्त के अनुसार यदि पुत्र को प्राप्त संपत्ति सहदायिक हो तो उस का अर्थ होगा कि वास्तव में उसे उत्तराधिकार में सिवाय सहदायिक संपत्ति में हिस्सेदारी के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ।  उक्त अधिनियम के पारित होने तक बहुत सारी संपत्तियाँ सहदायिक संपत्तियाँ थीं, इन संपत्तियों के संबंध में अधिनियम की धारा 6 के अनुसार उत्तराधिकार उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त होता था।  इस कारण से बहुत वर्षों तक यह समझा जाता रहा कि जो संपत्ति उत्तराधिकार में पुत्र को प्राप्त हुई है वह उस की व्यक्तिगत संपत्ति न हो कर सहदायिक संपत्ति हो गई है।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 में यह उपबंध किया गया था कि किसी भी सहदायिक/पुश्तैनी संपत्ति में हिस्सेदार किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर सहदायिक संपत्ति में उस का हिस्सा उत्तरजीविता के आधार पर अन्य सहदायिकों को प्राप्त होगा।  लेकिन यदि मृत्यु के पश्चात उस की कोई ऐसी स्त्री रिश्तेदार जीवित है जो कि इस अधिनियम की अनुसूची की प्रथम श्रेणी में सम्मिलित है तो उस का हिस्सा उत्तरजीविता के आधार पर सहदायिकों को प्राप्त नहीं होगा, अपितु वसीयत के अनुसार अथवा इस अधिनियम की धारा-8 के अनुसार उस के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होगा।  यहाँ यह स्पष्टीकरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि मृतक का हिस्सा इस तरह निर्धारित किया जाएगा जैसे कि ठीक उस की मृत्यु के पू्र्व सहदायिक संपत्ति का बँटवारा हो गया था। 

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-6 ने उत्तरजीविता के अधिकार को लगभग समाप्त प्रायः कर दिया है  क्यों कि अब सहदायिक संपत्ति में केवल उन्हीं मृतकों के हिस्से बने रह सकते थे जिन का अधिनियम की अनुसूची प्रथम में वर्णित कोई भी स्त्री उत्तराधिकारी जीवित नहीं हो।  अधिनियम 1956 के प्रभावी होने के पूर्व किसी भी हिन्दू पुरुष की स्वअर्जित निर्वसीयती संपत्ति उस की मृत्यु के उपरान्त उस के पुरुष उत्तराधिकारियों को प्राप्त होती थी और पुश्तैनी/सहदायिक संपत्ति हो जाती थी।  किन्तु इस अधिनियम के प्रभावी होने के उपरान्त वह धारा-8 के अनुसार उत्तराधिकार में प्राप्त होने लगी और नयी पुश्तैनी/सहदायिक संपत्ति का  अस्तित्व में आना असंभव हो गया।  अधिनियम के प्रभाव में आने के समय पूर्व से ही जो सहदायिक संपत्ति मौजूद थी उस में से भी ऐसे सहदायिक का हिस्सा उस की मृत्यु हो जाने पर अलग होने लगा जिस की इस अधिनियम की अनुसूची में वर्णित प्रथम श्रेणी की स्त्री उत्तराधिकारी जीवित हो।  जब नयी सहदायिक संपत्ति का अस्तित्व में आना समाप्त हो चुका हो धीरे-धीरे पुरानी सहदायिक संपत्ति भी कम हो रही हो तो इस का समाप्त हो जाना निश्चित है।

प के मामले में जिस संपत्ति का उल्लेख आप ने किया है  वह 1956 में आप के परदादा ने क्रय की थी।  निश्चित रूप से आप के परदादा का देहान्त 17 जून 1956 के उपरान्त हुआ होगा।  यदि उन का देहान्त उक्त तिथि के पहले हुआ होता तो यह संपत्ति सहदायिक हो जाती।  तब आप का उक्त संपत्ति में सहदायिक अधिकार हो सकता था।  लेकिन आप के दादा जी को उक्त संपत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार उत्तराधिकार में प्राप्त हुई।  उस में आप के पिता को भी आप के दादा के जीवित रहते कोई अधिकार प्राप्त नहीं हुआ था।  अब आप को भी अपने पिता के जीवित रहते कोई अधिकार उक्त संपत्ति में प्राप्त नहीं हुआ है।  

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