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नन्दकुमार मामले पर इतिहासकारों के मत : भारत में विधि का इतिहास-34

रेगुलेटिंग एक्ट के लागू होने के उपरांत हेस्टिंग्स गवर्नर जनरल तो बन गया था। लेकिन उस की परिषद में ही वह अल्पमत  में था। सुप्रीमकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश इंपे उस का मित्र होने से उसे सु्प्रीम कोर्ट की मदद प्राप्त थी। रेगुलेटिंग एक्ट के प्रावधान अस्पष्ट थे। इन का कोई भी लाभ उठा सकता था। परिषद और गवर्नर जनरल के बीच शक्ति के लिए खींचतान के झगड़े आम हो गए थे। उन के बीच भारतीय जनता पिस रही थी। राजा नन्दकुमार के मामले ने जो काला इतिहास रचा उस ने इतिहासकारों को भी आकर्षित किया। कुछ को छोड़ कर अधिकांश इतिहासकारों ने इंपे की भूमिका को दोषी बताया, कानूनों की अस्पष्टता को भी कारण बताया गया। लेकिन शायद ही कोई इतिहासकार ऐसा हो जिसने कहा हो कि राजा नन्दकुमार के मामले में न्याय हुआ था।

कुछ, जो यह मानते हैं कि सुप्रीमकोर्ट ने इंपे की अध्यक्षता में राजा नन्दकुमार के मामले का विचारण युक्तिसंगत रीति से किया था और विधि व न्याय के सिद्धांतों का निर्वाह किया गया था, उन में जे. एफ. स्टीफन मुख्य हैं। उन का कहना था कि मोहन प्रसाद ही नन्दकुमार का वास्तविक अभियोजक था और मामले के विचारण और निर्णयन में किसी प्रकार का षड़यंत्र नहीं किया गया था। विचारण पूरी तरह निष्पक्ष था और बंदी को पूर्ण अवसर प्रदान किया गया था। स्टीफन ने तर्क प्रस्तुत किया है कि विचारण केवल इंपे ने अकेले नहीं किया था। बैंच में चार जज थे और 12 जूरी सम्मिलित थे। पी.ई. राबर्टस् भी उन के मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि नन्दकुमार के मामले में हेस्टिंग्स का कोई हाथ नहीं था और मामला स्वाभाविक रूप से सुप्रीमकोर्ट तक पहुँचा था। सफाई पक्ष के साक्षियों से कड़ी प्रतिपरीक्षा करने के मामले में उन का कहना है कि सत्य पर पर्दा डालने के लिए नहीं अपितु सत्य को उजागर करने के लिए ऐसा आवश्यक था। इंपे के समर्थक इतिहासकार यह तर्क देते हैं कि उसे अपील और क्षमादान का अवसर इसलिए नहीं दिया जा सका था कि नन्दकुमार के व्यवहार से न्यायाधीश इतने क्षुब्ध थे कि उन्हों ने उसे ये सुविधाएँ देना उचित नहीं समझा। यदि नन्दकुमार ने भद्रता का परिचय दिया होता तो संभवतः उस पर विचार किया जा सकता था।

मैकाले बेबिंग्टन

तिहासकार तो क्या? कोई सामान्य व्यक्ति भी इन इतिहासकारों द्वारा व्यक्त किए गए इस मत से सहमत नहीं हो सकते थे। मिल, मैकाले, बेवरिज व अन्य अनेक विद्वान इतिहासकार स्टीफन के इस मत से सहमत नहीं थे। उन का मत है कि हेस्टिंग्स के साथ मित्रता निभाने के लिए ही इंपे ने नन्दकुमार को बलि चढा दिया। क्यों कि उस ने यदि अपराध किया था तो वह इतना बड़ा नहीं था कि उस के लिए मृत्युदंड ही एक मात्र उपाय रह गया हो। इतिहासकार मैकाले थॉमस बैबिंग्टन कहते हैं, ‘इंपे ने एक न्यायाधीश के रूप में राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक व्यक्ति को अन्यायपूर्ण रीति से फाँसी पर लटका दिया और अनुचित रूप से नन्दकुमार को युक्तिसंगत न्याय की सुविधा से वंचित किया। इंपे ने अपनी सुविधा के अनुसार सुप्रीमकोर्ट की अधिकारिता की व्याख्या करते हुए उसे प्रवृत्त किया। जब कि यह निश्चित था कि नन्दकुमार आरोपित अपराध के समय कलकत्ता का निवासी नहीं था। किन्तु उसे बलात बंदी बना कर निरुद्ध कर दिया गया था। नन्दकुमार पर अपनी अधिकारिता का उपयोग कर सुप्रीमकोर्ट ने अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने की कोशिश की। परंपरा के अनुसार उस के मामले पर अधीनस्थ दंड न्यायालय द्वारा विचारण किया गया होता तो यह मामला विधिक इतिहास में संदेह के घेरे में भी नहीं आता।’

जॉन स्टुअर्ट मिल 

मिल कहते हैं ‘गवर्नर जनरल सरीखी शक्ति पर नन्दकुमार द्वारा अभियोजन चला कर उसे इंग्लेंड और भारत के निवासियों की दृष्टि में अपमानित किए जाने से भविष्य में अपनी प्रतिष्ठा के नष्ट हो जाने की संभावना को नष्ट करने और परिषद में विरोधी बहुमत को परास्त करने के उद्देश्य से ही नन्दकुमार पर यह अभियोजन हेस्टिंग्स द्वारा चलवाया गया था।’

न्दकुमार के मामले में विचारण मात्र आठ दिन में पूरा कर लिया गया। और शीघ्र ही उसे सुनाए गए मृत्युदंड का प्रवर्तन भी कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट उसे बचाव का कोई अवसर देना ही नहीं चाहता था। ब्रेवरिज ने भी उसे फाँसी चढ़ाए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को ही दोषी ठहराया है। उस का कहना है कि इस मामले में साक्ष्य ली ही नहीं गई और सुप्रीमकोर्ट ने स्वयं ही मामले पर निर्णय ले लिया।’ बंगाल के तत्कालीन नवाब ने सम्राट की इच्छा प्राप्त होने तक दण्ड को निलंबित रखे जाने का आग्रह करते हुए एक पत्र परिषद को लिखा था जो परिषद को 27 जून को प्राप्त हुआ था। परिषद ने उस पत्र को अग्रेषित भी किया। किन्तु उस पर कोई कार्यवाही होती उस के पहले 5अगस्त 1775 को नन्दकुमार को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

न्दकुमार ने अपनी अपील याचिका में लिखा था कि “सम्राट के हित में और प्रजा को राहत प्रदान करने के लिए किए गए मेरे तुच्छ प्रयासों से बहुत लोग नाराज हो गए और स्वयं को बचाने के लिए मोहन प्रसाद के पुराने मामले को उखाड़ा गया, जब कि कई बार यह साबित हो चुका है कि वह निरा झूठा व्यक्ति है। न्यायाधीश इंपे और सहयोगियों ने मामले पर परंपरा के विपरीत अंग्रेजी कानून के अनुसार विचारण कर के मुझे मृ्युदंड तक पहुँचाया है। मेरे सारे विरोधियों को साक्षी बना कर साक्ष्य एकत्र की गई है। जिस दस्तावेज की कूटरचना का आरोप मुझ पर लगाया गया है मेरे सामने कभी लाया ही नहीं गया। ये तथ्य सम्राट से अधिक दिनों तक छिपए नहीं जा सकते। यदि मुझे अन्यायपूर्ण रीति से मृत्युदंड दे दिया गया तो मैं अगले जन्म में न्याय चाहूँगा।”

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