पत्नी और बेटी को सम्पत्ति समझना बन्द कर दें, समस्या का हल निकल आएगा।
|सौरभ ने प्रतापगढ़, राजस्थान से समस्या भेजी है कि-
मेरी शादी २०१० में देवास म.प्र. में हुई। १७/०८/२०१४ को मेरी पत्नी अपने माय के गई। वहाँ फोन पर मेरे और मेरे ससुर के बीच पत्नी को समय पर न भेजने को लेकर बहस हो गई। अब वो लोग पत्नी को भेज नहीं रहे है। उन्हों ने मेरे खिलाफ मारपीट का केस कर दिया है। मैं ने भी धारा – ९ एवं महिला आयोग में आवेदन कर दिया है। वो लोग मुझे मारने की एवं धारा ४८९ एवं अन्य केस करने की धमकी दे रहे हैं। मैं अपनी पत्नी को लाने एवं कानूनी बचाव के लिये और क्या कर सकता हूँ।
समाधान-
हमें तो यह समझ नहीं आ रहा है कि आप के और आप के ससुर जी के बीच आप की पत्नी को समय पर न भेजने के बारे में बहस क्यों हो गयी? लगता है आप अपनी पत्नी को और आप के ससुर अपनी बेटी को एक स्वतंत्र इन्सान ही नहीं समझते। लगता है आप अभी भी अतीत में जी रहे हैं। कानून बदल चुका है, जमाना भी धीरे धीरे बदल रहा है। अब स्त्रियाँ पिता, पति और पुत्र की संपत्ति नहीं रह गई हैं। कम से कम कानून के समक्ष तो नहीं। उन की अपनी इच्छाएँ भी कोई मायने रखती हैं। उन्हें भी अधिकार है कि वे जब जहाँ चाहें रहें। आखिर आप का घर कोई जेलखाना तो नहीं जहाँ से आप की पत्नी मायके पैरोल पर गई हो।
आप की पत्नी आप की इच्छा के अनुसार समय पर नहीं आई थी तो आप को उस से सीधे बात करनी चाहिए थी कि क्या कारण है कि उसे अधिक रुकना पड़ा? कारण जानने के बाद आप को कहना चाहिए था कि यदि वजह वाजिब है तो कुछ दिन और रुक लो पर यहाँ भी उस के बिना काम खराब हो रहा है। यदि उस का मन होता तो आ जाती। लेकिन नहीं यहाँ आप पत्नी को अपनी सम्पत्ति समझते हैं, तो उधर ससुर जी समझते हैं कि उस संपत्ति पर उन का भी कुछ अधिकार है। दोनों ऐसे लड़ पड़े जैसे दो भाई अपनी पुश्तैनी जायदाद में अधिक हिस्सा हथियाने के लिए लड़ते हैं।
जैसे संपत्ति के मामले में एक दूसरे के विरुद्ध असली और फर्जी दोनों तरह के फौजदारी मुकदमे किए जाते हैं वैसे ही आप ने भी एक दूसरे के विरुद्ध मुकदमे कर दिए हैं। क्या फर्क पड़ता है। दो-चार या दस-बीस साल तक लड़ने के बाद दोनों समझ जाएंगे कि जिस के लिए लड़ रहे थे वह वाकई कोई सम्पत्ति नहीं थी अपितु एक जीता जागता इंसान थी।
आप को समस्या का हल निकालना है तो सब से पहले आप पत्नी को इंसान समझिए। उस की इच्छा और जरूरतों को समझिए। फिर उस से बात करिए। जरूरत पड़े तो ससुर को भी समझाइए कि उन की बेटी किसी की सम्पत्ति नहीं है, उस की इच्छा के अनुसार उसे जीने दीजिए। कैसे भी हो, अपनी पत्नी से बातचीत का अवसर निकालिए, उसे विश्वास दिलाइये कि आप उसे संपत्ति नहीं बल्कि अपनी ही तरह इन्सान समझते हैं और उस के अधिकार भी वैसे ही हैं जैसे आप के हैं। उसे विश्वास हो गया तो सारी मुसीबतें और मुकदमे खत्म हो जाएंगे। पत्नी भी घर आ जाएगी और मुकदमे भी खत्म हो जाएंगे।
वर्ना दस-बीस साल अदालत में चक्कर लगाने के बाद अपने आप सब को समझ आ जाएगा और समस्या का भी कोई न कोई हल निकल ही आयेगा। पर युद्ध के बाद दोनों पक्षों के पास घायलों और घावों की संख्या बहुत अधिक होती है।
दस-बीस साल अदालत में चक्कर लगाने के बाद अपने आप सब को समझ आ जाएगा और समस्या का भी कोई न कोई हल निकल ही आयेगा। पर युद्ध के बाद दोनों पक्षों के पास घायलों और घावों की संख्या बहुत अधिक होती है।
धन्यवाद द्विवेदी जी
अमल कर के देखता हु.
पुरूषों को तो फासी दे देना चाहियें ताकि वो सुकून से मर तो सके ऐसी जिल्लतभारी जिन्दगी से तो मौत भली।
बेटियों और पत्नी को संपत्ति न समझ कर इन्सान समझना पुरुष के लिए जिल्लत भरी जिन्दगी कैसे हो गयी?
दिनेशराय द्विवेदी का पिछला आलेख है:–.पत्नी और बेटी को सम्पत्ति समझना बन्द कर दें, समस्या का हल निकल आएगा।