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न्यायालयों में रिश्वत

मैं जानना चाहता हूँ कि क्या एक वकील इतना मजबूर होता है कि अपने मुवक्किल से न्यायालय के जमादार या चपरासी को को रिश्वत दिलानी पड़े। मेरे वकील ने मेरी कृषि भूमि के विभाजन के मुकदमे के लिए मुझे 5100/- रुपए अपनी फीस तथा अन्य खर्च 1300/- रुपए बताए। जिस में मैं ने वकील को तय फीस की आधी राशि तथा अन्य खर्च की पूरी राशि का भुगतान कर दिया। शेष राशि विभाजन की डिक्री मिलने के बाद कर देने को कहा। इस के बावजूद मुझ से रिश्वत दिलाई गई।

-विनोद कुमावत, गुढ़ा गौरजी, राजस्थान

प ने यह नहीं बताया कि आप के वकील ने आप से कितनी रिश्वत या राशि उस जमादार या चपरासी को दिलाई। वस्तुतः इस राशि को दिलाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। इस राशि के बिना भी जमादार को वह कार्य करना ही पड़ता जो कि जिस के लिए उसे यह राशि दी गई। एक न्यायालय में जमादार या चपरासी का काम केवल यह होता है कि वह मुकदमे की पत्रावली को कार्यालय, न्यायालय तथा न्यायाधीश के चैम्बर में इधर से उधऱ पहुँचाए। वह इस काम में कुछ देरी कर सकता है। उसे धन मिलने पर उस ने यह काम तुरन्त कर दिया होगा। यह भी हो सकता है कि उसे धन केवल उस के लिए नहीं अपितु न्यायालय के क्लर्क या रीडर आदि को देने के लिए दिया गया हो। जिस से वे आप के काम को अपने क्रम में करने के स्थान पर उसे तरजीह के साथ करें।

वास्तविकता यह है कि राजस्थान के राजस्व न्यायालयों में ही नहीं अपितु सभी न्यायालयों के कर्मचारियों को इस तरह की राशि देने का प्रचलन आजादी के पहले से ही चला आ रहा है। उसे तोड़ने का कभी कोई प्रयत्न नहीं किया गया। पुराने वकील ऐसा करते रहे हैं इस लिए नए वकील भी उन का अनुकरण करने लगते हैं। राजस्व न्यायालयों में तो हाल इस से भी बुरा है। वहाँ तो मुकदमो में मनचाहा आदेश प्राप्त करने के लिए अक्सर ही न्यायालय के पीठासीन अधिकारी रिश्वत लेते हैं और अनेक अधिकारी तो ऐसे हैं कि आदेश की बोली तक लगवा लेते हैं। आज से 33 वर्ष पहले जब मैं ने वकालत आरंभ की तो राजस्व के मामलों की वकालत मैं ने भी की। लेकिन जब मुझे लगा कि वहाँ वकील का काम केवल मात्र इतना ही रह गया है कि वह कागजी औपचारिकताएँ करे। शेष निर्णय तो उसी के पक्ष में होना है जो न्यायालय के पीठासीन अधिकारी को रिश्वत दे देगा। मैं ने इसी कारण से राजस्व न्यायालय की वकालत करना बंद कर दिया। यह बिलकुल सही है कि अपने पक्ष में न्यायसंगत निर्णय प्राप्त करने के लिए भी देश भर के राजस्व न्यायालयों में रिश्वत देनी पड़ती है। इन न्यायालयों के चपरासी, क्लर्क, रीडर और पीठासीन अधिकारी पूरी निर्लज्जता के साथ इस रिश्वत को प्राप्त करते हैं, न्यायार्थी रिश्वत देते हैं और वकील इस में मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। अनेक बार तो ऐसा भी देखने में आया है कि दोनों पक्ष के वकील अपने मुवक्किल के पक्ष में निर्णय कराने के लिए अपने अपने मुवक्किल से भारी राशियाँ प्राप्त कर लेते हैं। जिस मुवक्किल के विरुद्ध निर्णय हो जाता है उस का वकील अपने मुवक्किल को यह राशि यह कहते हुए वापस लौटा देता है कि अधिकारी को विपक्षी ने अधिक पैसा दे दिया। और जीतने वाले पक्ष के वकील को उस के मुवक्किल से प्राप्त हुई राशि को दोनों वकील आपस में बाँट लेते हैं। इतना होने पर भी ऐसे वकील मिल जाएंगे जो कभी रिश्वत नहीं देते दिलाते और ऐसे कर्मचारी भी मिल जाएंगे जिन्हों ने जीवन में रिश्वत का कभी एक रुपया भी प्राप्त नहीं किया।

राजस्व न्यायालयों के अतिरिक्त दूसरे न्यायालयों में स्थिति इतनी गंभीर नहीं है। वहाँ भी चपरासी, क्लर्क या रीडर को अपना काम कुछ जल्दी करवाने, जल्दी या देरी की पेशी देने के लिए रिश्वत दी जाती है। लेकिन उस से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता। अंततः काम उसी गति से होता है जिस गति से होना चाहिए। वहाँ यदा कदा न्यायाधीशों को भी रिश्वत देने के मामले सुनने में आते हैं, लेकिन जहाँ राजस्व न्यायालयों में यह आम बात है अन्य न्यायालय में यह अपवाद या उस के मुकाबले नगण्य है। मैं ने अपनी वकालत के 33 वर्षों में कभी किसी क्लर्क या चपरासी को कोई रिश्वत नहीं दी। मेरे अतिरिक्त अन्य बहुत से वकील हैं जो कभी भी रिश्वत नहीं देते या दिलवाते हैं। यह भी सही है कि हम जैसे लोगों की पहचान बनी हुई है कि इन से कोई रिश्वत प्राप्त नहीं होगी। इस का असर यह भी है कि न्यायालय का कोई कर्मचारी हम से कभी रिश्वत की मांग नहीं करता है। यह भी कि हमारा कोई भी काम हो वह हमेशा प्राथमिकता से ही होता है, रिश्वत देने वालों के काम पिछड़ जाते हैं। हम जैसे वकीलों को लगता है कि रिश्वत न देना हमारे लिए अधिक सुविधाजनक है। लेकिन हमारे देश में जहाँ न्यायालयों की संख्या जरूरत की केवल 20 प्रतिशत है वहाँ किसी भी काम को होने में एक लंबा समय लगना स्वाभाविक है। इस के कारण हम जैसे वकीलों के अनेक मुवक्किल उन के मामलों में होने वाली सामान्य देरी का कारण यह समझने लगते हैं कि रिश्वत न देने के कारण ऐसा हो रहा है और वे हमारी जानकारी के बिना चपरासी, क्लर्क और रीडर आदि को रिश्वत दे आते हैं। न्यायालयों में रिश्वत के लेन देन को समाप्त किया जाना वर्तमान समाज व राज्य व्यवस्था में संभव नहीं है। लेकिन फिर भी वकील एक जुट हो कर यह प्रण कर लें कि वे रिश्वत न देंगे और न देने देंगे तो न्यायालयों में रिश्वत लेना देना केवल चर्चा का विषय भर रह सकता है और सभी काम रिश्वत के बिना हो सकते हैं।

भारत में रिश्वत इतनी आम है कि लोग यह समझने लगे हैं कि बिना रिश्वत दिए कोई काम हो पाना संभव नहीं है। यही कारण है कि पिछले दिनों जब भ्रष्टाचार पर मामूली लगाम लगाने के उद्देश्य से कानून बनाने की मांग पर अन्ना हजारे और उन के साथियों ने आंदोलन किया तो जनता उन के साथ उमड़ पड़ी। जनता की समझ थी कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर देगा। लेकिन जब यह कहा जाने लगा कि यह कानून भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं कर सकेगा अपितु उस पर कुछ अंकुश ही लगा सकेगा, तो उस आंदोलन के साथ लगे लोगों की संख्या कम हो गई। वास्तविकता यह है कि वर्गीय समाज व्यवस्था में भ्रष्टाचार का पूरी तरह निवारण संभव नहीं है। इस के लिए यह आवश्यक है कि वर्गों और राज्य दोनों की समाप्ति हो जाए। लेकिन अभी तो यह समझने वाले ही नगण्य हैं कि मनुष्य समाज में वर्गों और राज्य की समाप्ति हो सकती है।

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