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न्‍याय-वध…..(1)

रोज ही अदालतों में न्याय का वध होते देखते हैंयह वध अधिकतर हमारी न्याय प्रणाली का आम दृश् हो चुका हैइस का प्रमुख कारण हमारी न्याय प्रणाली का हमारी जरूरतों के लिए पर्याप् से बहुत कम होना हैहम भारत को दुनियां का सब से बड़ा और सफल लोकतन्त्र कहते नहीं थकतेलेकिन बिना सक्षम और निष्पक्ष न्याय प्रणाली के एक ऐसा होना मुमकिन ही नहीं हैहमारी न्याय प्रणाली की एक बानगी देखिए :

      • ग्लोबल‍ करप्‍शन रिपोर्ट 2007 में न्‍याय प्रणालियों में भ्रष्‍टाचार के फरवरी 2006 के आंकड़ों के अनुसार भारत के सु‍प्रीम कोर्ट में 33,635 मुकदमे, 26 न्‍यायाधीशों के पास, हाईकोर्टों में 33,41,040 मुकदमें 670 न्‍यायाधीशों के पास तथा निचली अदालतों में 2,53,06,458 मुकदमे, 13204 न्‍यायाधीशों के पास लम्बित थे।यदि कोई भी नया मुकदमा दर्ज नहीं हो तो इन के निपटारे की वर्तमान गति से इन के निपटारे में 350 वर्ष लगेंगे। भारत में प्रत्‍येक दस लाख लोगों पर 12-13 न्‍यायाधीश हैं, जब कि इस की तुलना संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में दस लाख संख्‍या पर 107, कनाडा में 75, तथा इंग्‍लेण्‍ड में 51 न्‍यायाधीश नियुक्‍त हैं

  आप खुद सोच सकते हैं कि हमारी न्याय प्रणाली में मुकदमों के निपटारे में देरी क्यों होती हैवास्तव में हमारे देश में जरूरत की चौथाई अदालतें भी नहीं हैंअदालतों को मजबूरी में लम्बीलम्‍‍बी तारीखें सुनवाई के लिए नियत करनी पड़ती हैंपक्षकार अदालत से जूझते रहते हैं, अदालतें मुकदमों के अम्बार से जूझते रहती हैंमुकदमों की सुनवाई की अगली तारीख नियत करने का काम अदालतों के रीडर यानी तारीख बाबू करते हैंअब जल्दी की तारीख लेने के लिए उसे खुश रखना जरूरी हैइस की तरकीब बताने के लिए वकीलों के मुन्शी उपलब् हैंवे इस के लिए रास्ता बनाते हैं, इस की मेहनत वसूल करते हैं, और मुवक्किल की जेब की कीमत पर तारीख बाबू को खुश करते हैंअपराधिक मुकदमों में हर अभियुक् को दूर की तारीख चाहिए, जिस से गवाह को पटाया जा सकेनहीं पटाया जा सके तो वह गवाह देरी के कारण तथ्यों को भूल कर सही गवाही नहीं दे सके, यूं और भी तरीके हैं सबूत को नष् करने के, पर उन सब के लिए मुकदमे की तारीख का लम्बा होना निहायत जरूरी हैयह बात सब से ज्यादा तारीख बाबू को पता होती हैवह हर मुलजिम को जल्दी की तारीख देने की पेशकश करता हैअब यहां भी वकीलों के मुन्शी ही राह बनाते हैंइसे आप भ्रष्टाचार कहें, तो शिष्टाचार टूटता है

 तो देख लिया यहां न्‍याय के वध के तमाम साधन उपलब्‍ध हैं। मैंने जब 1979 में कोटा की लेबर कोर्ट में वकालत की शुरूआत की तो इस अदालत को खुले केवल साल भर ही हुआ था। मुकदमों की संख्‍या गिनती की थी। यह अदालत लेबर कोर्ट का काम सप्‍ताह में केवल तीन दिन करती थी। बाकी दो दिन मोटर एक्‍सीडेण्‍ट क्‍लेम और एक दिन भ्रष्‍टाचार निवारण के मुकदमे देखती थी। फिर भी इस अदालत में दो सप्‍ताह से अधिक की तारीख निश्चित कराना बड़ी ही टेड़ी खीर था। केवल उचित कारण बताने पर और जज साहब से बहुत मिन्‍नत करने पर एक माह की तारीख मिलती थी। तब एक मुकदमा ज्‍यादा से ज्‍यादा दो-ढाई साल में निपट जाता था और यह भी देरी मानी जाती थी। अब यह अदालत सातों दिन की लेबर कोर्ट है, करीब पौने चार हजार मुकदमें फैसलों के इन्‍तजार में हैं। हाल यह है कि अदालत मुकदमों के बोझ से इतनी दबी है कि तारीख बाबू के लिए चार पांच महीने की तारीख देना आम बात है। इस से कम समय की तारीख लगवा लेना लंका जीतने जैसा साहस और शोर्य का काम। अब लेबर कोर्ट में पिटा हुआ प्राणी तो मजदूर कर्मचारी ही है। उस के मालिक के लिए तो फैसला जितनी देरी से हो उतना अच्‍छा। या तो लड़ते लड़तें मजदूर ढेर हो जाता है, या उसकी रिटायरमेण्‍ट की उम्र ही पार कर जाता है। अनेक इस दुनियां को भी छोड़ जाते हैं।

फैसला आप करें कि न्‍याय, बचा या फौत हुआ (मरा)। न्‍याय के इस वध के लिए सीधे-सीधे हमारी सरकारें जिम्‍मेदार हैं। देश में जरूरत के मुताबिक अदालतें खोलना उनका काम है। पर वे ऐसा क्यों करेंउन के पास सोचने को वक् कहां हैंज्यादातर चुने हुए लोगों को एक साल तो प्रतिष्ठा बनाने में, दो साल चुनाव का खर्चा निकालने में और बाकी का समय अगले चुनाव का टिकट कबाड़ने और वोट बनाने की जुगाड़ में बिताना पड़ता है

 न्‍या‍ वध की इस को हम जारी रखेंगे, आप पाठकों की अदालत में असली मामले भी ले कर आऐंगे। आप की नजर में भी ऐसे अनेक मामले हो सकते हैं। आप हमें भेजिए हम उन्‍हें तीसरा खंबा में ले कर आऐंगे। इस के लिए आप हमें ई-मेल करें। इस बारे में जज क्‍या सोचते हैं, यह भी आप को बताऐंगे। अगली कडि़यों में। आप प्रतीक्षा करें।

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