पिटस् इंडिया अधिनियम-1784 : भारत में विधि का इतिहास-38
|संशोधन अधिनियम-1781 से रेगुलेटिंग एक्ट से उत्पन्न सु्प्रीम कोर्ट और गवर्नर जनरल परिषद के बीच क्षेत्राधिकार विवाद तो हल कर लिया गया था। इस से कंपनी की शक्तियों में वृद्धि हो गई थी। कंपनी की बढ़ी हुई शक्तियाँ भारतीय जनता पर कहर बरपा सकती थीं। परिणाम स्वरूप भारत में ब्रिटिश क्राउन की बदनामी होती। इस कारण से महसूस किया गया कि कंपनी पर संसद और क्राउन का प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए। इस के लिए 1784 में जब विलियम पिट इंग्लेंड का प्रधानमंत्री था ईस्ट इंडिया अधिनियम पारित किया गया। इसी कारण से यह अधिनियम पिटस् इंडिया अधिनियम कहलाया।
इस अधिनियम का उद्देश्य ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रबंध व्यवस्था में सुधार करना, भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के क्षेत्रों में प्रशासनिक सुव्यवस्था स्थापित करना और अपराधिक मामलों के प्रभावी विचारण के लिए कोर्ट ऑफ जुडिकेचर स्थापित करना था। इस अधिनियम के द्वारा एक नियंत्रण मंडल (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) तथा निदेशक मंडल की स्थापना कर के कंपनी को भारतीय मामलों के नियंत्रण से वंचित कर दिया गया।
अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सम्राट को प्रिवी कौंसिल के सदस्यों में से छह सदस्यों को आयुक्त नियुक्त करने का अधिकार दिया गया था। इन में एक चांसलर ऑफ एक्सचेकर (अर्थ मंत्री) भी शामिल होता था। इन में जो भी वरिष्ठतम आयुक्त होता था, वह नियंत्रण मंडल की अध्यक्षता करता था। उसे ‘भारत आयुक्त” कहा जाता था। बैठक में बराबर मत विभाजन हो जाने पर उसे निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया था। कोरम पूरा होने के लिए कम से कम तीन आयुक्तों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। नियंत्रण मंडल को निदेशक मंडल के कार्यों, अभिलेखों और खातों का निरीक्षण करने की शक्ति दी गई थी। वांछित दस्तावेज मांगे जाने पर निदेशक मंडल के लिए उस की प्रतिलिपी नियंत्रण मंडल के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य था। नियंत्रण मंडल अपने आदेशों और निर्देशों को निदेशक मंडल के माध्यम से प्रेषित करता था। आवश्यक होने पर गुप्त समिति को आदेश भेजे जाते थे जो उन्हें सपरिषद गवर्नर जनरल को अग्रेषित करती थी। तीन आयुक्तों को मिला कर गुप्त समिति का गठन किया जाता था।
पिटस् अधिनियम के द्वारा सपरिषद गवर्नर जनरल की स्थिति में भी परिवर्तन किए गए थे। अब प्रत्येक प्रेसीडेंसी की कौंसिल में चार के स्थान पर तीन सदस्य ही निदेशक मंडल द्वारा नियुक्त किए जा सकते थे, जिन में से एक अनिवार्य रूप से सेनापति होता था। परिषद में मत विभाजन की स्थिति में गवर्नर को निर्णायक मत का अधिकार दे दिया गया था। इस से गवर्नर की स्थिति परिषद में मजबूत हुई थी। गवर्नर जनरल और उस की परिषद के अधिकारों को सुनिश्चित किया गया था तथा अधिक व्यापक कर दिया गया था। अधिनियम के द्वारा कंपनी के नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों को ‘ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र’ और ‘ब्रिटिश राज्य के प्रदेश’ नाम दे दिए गए थे। भारत में ब्रिटिश प्रभुता के विस्तार के लिए कंपनी के सेवकों को वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश सम्राट मे निहीत कर दिया गया था।
इस अधिनियम के द्वारा भारत में न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया था। कंपनी के कर्मचारिय़ों पर भारत में किए गए अपराधों पर इंग्लेंड में तीन न्यायाधीशों, चार पियरों (गणमान्य व्यकि) और हाउस ऑफ लॉर्डस् के छह सदस्यों से युक्त विशेष न्यायालय द्वारा विचारण की व्यवस्था की गई थी। कंपनी के गवर्नर जनरल, परिषद के सदस्यों और सेनापति की नियुक्ति का अधिकार कंपनी के निदेशक मंडल को ही दिय
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6 Comments
उत्क्रिस्ट.
इस अधिनियम के बारे में अपने काफी उम्दा जानकारी दी है …आभार
बहुत अच्छी जानकारी दी आप ने
भारत के वर्तमान विधि इतिहास की अपूर्व जानकारी . इन तथ्यों का जानना सबके लिए जरूरी है .
बहुत सहज भाषा मे ज्ञान प्राप्त हो रहा है बहुत धन्यवाद.
रामराम.
विधि का इतिहास आपकी कलम से जानना भी एक उपलब्धि है इस ब्लॉगजगत की…आभार!!