1684-1718 मुंबई न्याय व्यवस्था में बाधाएँ : भारत में विधि का इतिहास-19
|नौकाधिकरण की स्थापना
कीविन विद्रोह के कारण आंगियार द्वारा मुंबई स्थापित न्याय व्यवस्था पूरी तरह तहस-नहस हो गई थी। 16 नवम्बर 1684 को विद्रोहियों ने मुंबई को फिर से कंपनी को सौंप दिया। इस बार यहाँ 1683 के चार्टर के अंतर्गत नौकाधिकरण स्थापित किया गया। विधि-दक्ष सेण्ट जॉन को इस का जज एडवोकेट बनाया गया और सहयोग के लिए कंपनी के दो अधिकारियों को साथ में नियुक्त किया गया। चार्टर के अनुसार इस अधिकरण को जलदस्युता, अतिचार, जलयानों की जब्ती, क्षति, सदोष कार्यों आदि के मामले ही इस की अधिकारिता में थे। लेकिन मुंबई में उस समय अन्य कोई न्यायालय नहीं होने के कारण सिविल और अपराधिक मामलों की अधिकारिता भी नौकाधिकरण को दे दी गई थी। जॉन ने शुद्ध अंतःकरण और साम्य के सिद्धान्तों के अनुसरण के आधार पर मामलों का निर्णय किए जाना प्रारंभ किया। किन्तु उसे उस की सपरिषद गवर्नर से मतभेद रहे और उस से दीवानी और अपराधिक मामलों की अधिकारिता 1685 में छीन ली गई। वह विधि का विद्वान और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति था। लेकिन गवर्नर चाइल्ड से मतभेदों के कारण 1987 में उस ने बाध्य हो कर पद त्याग दिया। सेण्ट जॉन के स्थान पर उप राज्यपाल जे. वाईबोर्न और 1688 में बाक्स को न्यायालय का प्रमुख बनाया गया लेकिन कंपनी के साथ मतभेदों के कारण उन के कार्य में बाधाएँ उपस्थित की गईं और नौकाधिकरण ने नियमित रूप से काम करना बंद कर दिया।
सेण्ट जॉन के उपरांत सभी प्रमुखों के विधि के जानकार न होने से न्यायालय का कार्य कंपनी के हित संरक्षण का ही रहा। सेंट जॉन को अपनी निष्पक्षता के कारण कंपनी का विरोध सहन करना पड़ा। इस कारण से इस काल में न्याय व्यवस्था में कोई प्रगति नहीं हो सकी 1690 में मुगल सेनापति याकूब ने आक्रमण कर मुंबई पर अधिकार कर लिया जो 1718 तक बना रहा। इस बीच यहाँ न्याय व्यवस्था छिन्न-भिन्न ही रही सपरिषद गवर्नर ही एक मात्र न्यायालय का कार्य करता रहा।
पुनः कोर्ट ऑफ जुडिकेचर
25 मार्च 1718 को मुंबई में फिर से कोर्ट ऑफ जुडिकेचर की स्थापना की गई। इस के लिए एक मुख्य न्यायाधीस सहित नौ न्यायाधीश नियुक्त किए गए। मुख्य न्यायाधीश सहित पाँच न्यायाधीश अंग्रेज और चार भारतीय न्यायाधीश थे। भारतीय न्यायाधीशों में एक हिन्दू, एक मुस्लिम, एक पुर्तगाली और एक पारसी था। भारतीय न्यायाधीशों का दायित्व अंग्रेज न्यायाधीशों की सहायता करना और निर्धारक का कार्य करना था। जूरियों की सहायता नहीं ली जाती थी और न्यायालय सप्ताह में एक बार बैठक करता था।
इस न्यायालय को विस्तृत अधिकार दिए गए थे। यह सिविल, अपराधिक और वसीयती मामले देखता था और क्रय-विक्रय के व अन्य पंजीकरण योग्य दस्तावेजों का पंजीकरण भी करता था। मृत्युदंड के मामले सपरिषद गवर्नर को प्रेषित किए जाते थे। सपरिषद गवर्नर को इस न्यायालय के निर्णयों की अपील प्रस्तुत की जा सकती थी लेकिन इस के लिए निर्णय के 48 घंटों की अवधि में मुख्य न्यायाधीश को सूचित करना आवश्यक होता था। न्यायालय में अंग्रेजी विधि, साम्य और शुद्ध अंतःकरण के सिद्धान्तों के आधार पर प्रक्रिया निर्धारित थी। प्रचलित रीति रिवाजों और कंपनी द्वारा निर्मित कानूनों का प्रवर्तन किया जाता था। आवश्यक होने पर अंतर्ऱाष्ट्रीय विधि का भी उपयोग किया जाता था। अभियुक्त को बचाव का पूरा अवसर दिया जाता था। न्यायालय अवमानना और कूट साक्ष्य के मामलों में दंड का विधान था। सामान्यतः न्याय प्रक्रिया के तकनीकी सिद्धांतों का पालन नहीं किया जाता था। पूर्व न्यायिक दृष्टांतों का कोई महत्व नही
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4 Comments
good information….
This information helpful for me…
Thanks…
बढिया जानकारी.
रामराम.
nice