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मद्रास और मुंबई में अभिलेख न्यायालय : भारत में विधि का इतिहास-39

अभिलेख न्यायालय
द्रास और मुंबई की प्रेसीडेंसियों में आबादी निरंतर बढ़ रही थी। लेकिन उस के अनुरूप न्यायिक व्यवस्था का विकास नहीं हो पा रहा था। वहाँ अभी 1726 और 1753 के चार्टरों के अधीन स्थापित न्याय व्यवस्था ही चल रही थी। मेयर न्यायालय सिविल मामले और दांडिक न्याय गवर्नर और उस की परिषद ही देख रही थी। न्यायालयों में विधि में दक्ष लोगों के अभाव में न्यायायल अक्षम सिद्ध हो रहे थे। गवर्नर और उस की परिषद समयाभाव के कारण अपराधिक न्याय प्रशासन पर ध्यान नहीं दे पा रही थी। कोलकाता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हो जाने से वहाँ न्याय प्रशासन में कुछ सुधार हुआ था। लेकिन मद्रास और मुंबई उस की अपेक्षा पिछड़ रहे थे। मद्रास के गवर्नर ने वहाँ की आवश्यकताओं का उल्लेख करते हुए वहाँ  सु्प्रीमकोर्ट स्थापित करने की आवश्यकता बताते हुए सुझाव दिया कि उसे कोलकाता सुप्रीम कोर्ट के अधीन रखा जाए जिस से अपील के लिए इंग्लेंड नहीं जाना पड़े और विधि में दक्ष व्यक्ति सुलभ कराए जाएँ। अंत में ब्रिटिश संसद ने 1797 में अधिनियम पारित कर ब्रिटिश सम्राट को मुम्बई और मद्रास में एक एक अभिलेख न्यायालय स्थापित करने के लिए चार्टर जारी करने  का अधिकार  दिया इंगलेंड के सम्राट जॉर्ज तृतीय ने 1 फरवरी 1798 को मद्रास और मुम्बई में अभिलेख न्यायालयों की स्थापना के लिए चार्टर जारी कर दिया। मद्रास में कोर्ट ऑफ रेकॉर्डस् की स्थापना 1 नवम्बर 1798 को हुई और उस ने 3 नवम्बर से अपना कार्य आरंभ कर दिया। इसी वर्ष मुंबई में भी अभिलेख न्यायालय की स्थापना हो गई। 
 
विधिज्ञ की नियुक्ति
भिलेख न्यायालय में एक मेयर, तीन एल्डरमेन और एक अभिलेखक की नियुक्ति न्यायाधीशों के रूप में की गई थी। अभिलेखक पद पर नियुक्ति के लिए इंग्लेंड या आयरलेंड में बैरिस्टरी का पाँच वर्ष का अनुभव होना आवश्यक था। वह अभिलेख न्यायालय का प्रमुख होता था और नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट द्वारा की जाती थी। 
अभिलेख न्यायालयों को कोलकाता के सु्प्रीमकोर्ट के समान अधिकारिता दी गई थी जिस में समस्त दीवानी, अपराधिक, नावाधिकरण,धार्मिक और सामुद्रिक मामले सम्मिलित थे। न्यायालय की अधिकारिता पर 1781 के संशोधन अधिनियम (सेटलमेंट एक्ट) के प्रतिबंधों का प्रवर्तन किया गया था। हिन्दू और मुस्लिम पक्षकारों के मामले में उन की व्यक्तिगत विधि लागू की जाती थी। यदि पक्षकार भिन्न धर्मावलंबी होते थे तो प्रतिवादी की धार्मिक विधि प्रवृत्त की जाती थी। भू-राजस्व के मामले इस न्यायालय की अधिकारिता के बाहर रखे गए थे। इस तरह अभिलेख न्यायालय को स्थानीय व्यक्तियों के मामलों पर भी पूर्ण अधिकारिता प्राप्त हो गई थी। जब कि पहले मेयर न्यायालय स्थानीय व्यक्तियों के मामले सहमति के आधार पर ही सुन सकता था। अभिलेख न्यायालयों की अपील प्रीवी कौंसिल में ही प्रस्तुत की जा सकती थी। 1801 में मद्रास में और 1823 में मुम्बई में सु्प्रीमकोर्ट की स्थापना हो जाने पर अभिलेख न्यायालयों ने काम करना बंद कर दिया। 
मेयर न्यायालय से अंतर
भिलेख न्यायालय वैसे तो  मेयर न्यायालय का ही एक सुधरा हुआ रूप था। लेकिन अभिलेखक के रूप में विधि दक्ष व्यक्ति के प्रमुख हो जाने के कारण जिस से उस की कार्यविधि में गतिशीलता आ गई थी और न्याय अधिक साफ सुथरा होने लगा था।  अभिलेख न्यायालय का अधिकार क्षेत्र मेयर न्यायालय से अधिक विस्तृत था। यह न्यायालय मेयर न्यायालय और नावाधिकरण दोनों के अ

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