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भारत शासन अधिनियम 1935 और विधि व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-84

गस्त 1935 में ब्रिटिश संसद ने भारत शासन अधिनियम 1935 पारित किया। इस अधिनियम ने 1919 के अधिनियम का स्थान लिया। इस अधिनियम के उपबंधों से भारत में विधान मंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों को विनियमित करने का उल्लेखनीय प्रयत्न किया गया था। न्याय और विधि के क्षेत्र में इस अधिनियम द्वारा उच्च न्यायालयों की रचना, गठन, अधिकारिता और शक्तियों क नए सिरे से निर्धारण किया गया।
स अधिनियम से उच्च न्यायालयों को अभिलेख न्यायालयों के रूप में मान्यता प्रदान की गई। इस के द्वारा ब्रिटिश सम्राट को उच्च न्यायालयों के लिए मुख्य न्यायाधीश सहित यथोचित संख्या में न्यायाधीश नियुक्त करने का प्राधिकार प्रदान किया गया। साथ ही सम्राट को न्यायाधीशों को पदच्युत करने की शक्ति भी प्रदान की गई थी। इस अधिनियम के अंतर्गत गवर्नर जनरल को किसी भी उच्च न्यायालय के लिए अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त करने का प्राधिकार भी दिया गया था। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 60 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते थे। नई व्यवस्था में न्यायपालिका को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया था। पहले की व्यवस्था में न्यायाधीश ब्रिटिश सम्राट की इच्छा पर्यंत अपने पद पर बने रह सकते थे, जब  कि इस अधिनियम के द्वारा उन का कार्यकाल निश्चित कर दिया गया था। न्यायाधीशों पर किसी भी प्रकार का दबाव प्रभावी नहीं हो सकता था और वे स्वतंत्र रूप से न्याय प्रदान कर सकते थे। न्यायाधीशों को हटाने के मामले में प्रिवी कौंसिल ब्रिटिश सम्राट को निर्दिष्ट कर सकती थी। 
न्यायाधीशों की योग्यता भी नए सिरे से विनिर्दिष्ट की गई थी। इस के लिए दस वर्ष तक के अनुभवी बैरिस्टर, भारतीय सिविल सेवा में 10 वर्ष की सेवा पूर्ण कर लेने वाले अधिकारी जिस ने न्यूनतम दो वर्ष जिला न्यायाधीश के रूप में कार्य किया हो, 10 वर्ष से अधिक की अवधि तक लघुवाद न्यायालय में  सहायक न्यायाधीश अथवा न्यायाधीश के कार्य का अनुभव रखने वाले या ऐसे व्यक्ति जो 10 वर्ष तक उच्च न्यायालय में प्लीडर के रूप में कार्य कर चुके हैं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के लिए अर्हता रखते थे। 
न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय ब्रिटिश सम्राट को उन के वेतन, भत्ते और पेंशन आदि लाभों को निर्धारित करने का प्राधिकार दिया गया था। यह स्पष्ट किया गया था कि इस व्यवस्था में न्यायाधीश की नियुक्ति के उपरांत कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा। इस तरह न्यायाधीशों को सेवा सुरक्षा प्रदान की गई थी जो स्वतंत्र न्यायपालिका के विकास के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुई थी।
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